तुम स्पंदित ओष्ठों से मुस्कुरा रही होगी - विनोद निराश

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कल से ही ह्रदय,

अति स्पंदित हो रहा था,

तुम्हारी यादें व्याकुल कर रही थी ,

स्वांसों का वेग तीव्र हो रहा था ,

जब - जब तुम्हारी तस्वीर को देख रहा था।

स्मृतियों की खिड़कियों के दरीचे से ,

जैसे तुम अनवरत मुझे देख रही थी ,

उत्साहित मन बार-बार अवसादित हो रहा था ,

तुम्हारे जाने के बाद,

पहली ख़ुशी दहलीज़ पर दस्तक दे रही थी।

 

तुम्हारी यादों की खुश्बू

रजनीगन्धा सी दिल में महकती रही ,

खुशियां चिनार के फूलों सी झरती रही ,

पीपल के पत्ते तालियां सी बजाते रहे।

अनकही चाहते तुम्हारी कमी महसूस करती रही। 

तेरे अहसासो की चाँदनी,

आहिस्ता-आहिस्ता आँगन में फ़ैल रही थी ,

निराश ख्यालों में बसन्त मल्लिका महक रही थी ,

भीगे कमलदल सरीखी रूह चहक रही थी ,

अशेष ख़्वाहिशें मुकम्मल हो रही थी ।

बेशक तुम ख़ुशी में शामिल न हुए ,

मैंने तुम्हारी स्मृतियों को सहेजे रखा ,

सोचता रहा तुम कहकशां से अनुरागित हो रही होगी ,

उत्कर्ष की विपेक्षा को देखकर,

तुम स्पंदित ओष्ठों से मुस्कुरा रही होगी। 

- विनोद निराश , देहरादून