काहे मनवा समझ न पाता - किरण मिश्रा
Jan 9, 2022, 23:25 IST
| मानव से मानव का नाता,
काहे मनवा समझ न पाता।
अपनेपन की वैशाखी,
रिश्तों के बोझे में उलझी
तेरा मेरा करते-करते
जीवन क्षण भंगुर हो ,जाता।
काहे मनवा समझ न पाता।
खूब हंसाए जग के मेले,
फिर भी बापू फिरें अकेले,
जिस आंचल में बडे़ हुए हैं ,
उनसे अब छत्तीस का नाता।
काहे मनवा समझ न पाता..
उम्र मदारी खूब नचाती,
सारा जीवन आपा-धापी,
बचपन की उंगली को पकडे़
जिस्म यहाँ बंजर (बूढा़) हो जाता।
काहे मनवा समझ न पाता।
कर्म का लेखा भाग्य है बाँचे ,
लोभ में उलझा कब वो जाँचे,
माया ठगिनी आनी जानी,
कौन ये गठरी संग ले जाता।
काहे मनवा समझ न पाता।
- डा किरण मिश्रा 'स्वयंसिद्धा' ,
नोएडा, उत्तर प्रदेश