काहे मनवा समझ न पाता - किरण  मिश्रा

 | 
pic

मानव से मानव का नाता,

काहे मनवा समझ न पाता।

अपनेपन की वैशाखी,

रिश्तों के बोझे में उलझी

तेरा मेरा करते-करते

जीवन क्षण भंगुर हो ,जाता।

काहे मनवा समझ न पाता।

खूब हंसाए जग के मेले,

फिर भी बापू फिरें अकेले,

जिस आंचल में बडे़ हुए हैं ,

उनसे अब छत्तीस का नाता।

काहे मनवा समझ न पाता..

उम्र मदारी खूब नचाती,

सारा जीवन आपा-धापी,

बचपन की उंगली को पकडे़

जिस्म यहाँ बंजर (बूढा़) हो जाता।

काहे मनवा समझ न पाता।

कर्म का लेखा भाग्य है बाँचे ,

लोभ में उलझा कब वो जाँचे,

माया ठगिनी आनी जानी,

कौन ये गठरी संग ले जाता।

काहे मनवा समझ न पाता।

- डा किरण मिश्रा 'स्वयंसिद्धा' ,

 नोएडा, उत्तर प्रदेश