मन को - सुनीता द्विवेदी
Oct 6, 2021, 11:06 IST
| मन को मालिक बना दिया,
मन मौजैं उडा़ रहा है,
पाप कमा बचूं, पुण्य करूँ,
तरकीबें भीड़ा रहा है।
अहंकार जब पोषित था,
तब तक कोयल लगते थे,
सच का गीत सुनाया ज्यौं,
कौव्वा कह उडा़ रहा है,
मन मौजै उडा़ रहा है।
बचपन को रोक न पाया,
बीता यौवन पछताया,
लगा लगा के रोगन रँग,
बुढापे अ (ब) छुडा़ रहा है,
मन मौजै उडा़ रहा है।
सबकी कमियां गिनता है,
आप भला बन बैठा है,
मुँह चुपडी़ सबकी कर कर,
आपस में भिडा़ रहा है,
मन मौजै उडा़ रहा है।
घर की नारी शत्रु जैसी,
परनारी अति भाती है,
घर में बन तेल खौलता,
बाहर ये जुडा़ रहा है,
मन मौजै उडा़ रहा है।
डर ना खूंखार काल का,
ना कुटिल कर्म फल समझ रहा,
राम नाम सत्य नित सुन,
कर भी दिन उडा़ रहा है,
मन मौजै उडा़ रहा है।
®सुनीता द्विवेदी
कानपुर , उत्तर प्रदेश