श्री राम यज्ञ - (18वीं समिधा) - जसवीर सिंह हलधर
करूँ आरती नारायण की ।
कथा सुनो अब लंक दहन की ।।
बंदी हुए स्वयं बजरंगी ।
ब्रह्म अवज्ञा की थी तंगी ।।1
रावण का दरबार सजा था ।
लाशों के अंबार सजा था ।।
इतने खर मारे हनुमत ने ।
वानर कुल भूषण दलपत ने ।।2
रावण अधिक क्रोध में आया ।
बहुत बुरा आदेश सुनाया ।।
दंड कड़ा दो इस वानर को ।
शाखामृग रूपी नाहर को ।।3
रावण स्वयं मूंछ को ऐंठे ।
वस्त्र कपिस की पूँछ लपेटे ।।
जलने वाला तेल मंगाया ।
हनुमत के दामन उलटाया ।।4
तुरत पूँछ को आग लगाई ।
रावण की बुद्धी चकराई ।।
हनुमत ने आकार बढ़ाया ।
अपना सही स्वरूप दिखाया ।।5
उछल कूद बजरंग मचाई ।
राजमहल को आग लगाई ।।
भादों को बैसाख बनाया ।
रंगमहल को राख बनाया ।।6
जहां जहां भी पूँछ हिलाई ।
आग वहीं देती दिखलाई ।।
पवन पूत का बाजा डंका ।
धूँ धूँ जली स्वर्ण की लंका ।।7
भक्त विभीषण सम्मुख आये ।
क्रोध कपिस का शांत कराये ।।
सागर किया पूँछ को ठंडा ।
नारायण का ऊँचा झंडा ।।8
किष्किन्धा को वापस आये ।
हरि को समाचार बतलाये ।।
बात नहीं अब शंका में है ।
मात जानकी लंका में है ।।9
हमले की पूरी तैयारी ।
हुआ विमर्श राज में भारी ।।
सेना पहुँची सिंधु किनारे ।
सेना नायक राम हमारे ।।10
- जसवीर सिंह हलधर, देहरादून (उत्तराखंड)