कविता - कागज का पन्ना

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कागज का पन्ना,

फड़फड़ा रहा है ।

देखे जा रहा है ,

उंगलियों का चलना,

एक शीशे-सी चमकती वस्तु पर।

सज रहे उस पर सुंदर ,सुघड़ अक्षर ।

यही तेज  उंगलियां,

पहले चलती थीं मुझ पर ।

रुक -रुक कर आहिस्ते से,

एहसास उकरते थे मुझ पर

कभी टपकते आंसुओं को ,

सोखता भी था

कभी मीठे खयालों में मगन,

उंगलियों से छूट

उड़ता भी था।

सजा लो कुछ बोल मुझ पर भी।

उंगलियों का एहसास दो मुझको भी।

जब तक जिंदा हूं समेटे रहूँगा ,

सारे एहसासों को ।

अब तक सहेजा है न

इतिहास पुराना,

क्यों भूल गया आज

मुझे यह नया जमाना।

= शिप्रा सैनी (मौर्या), जमशेदपुर