नज्म - अंजू निगम

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हम अपना जख्म दिखाने कहाँ चले आये,

शिकवो की किताब खोले कहाँ चले आये|

वो शाम जब छु रही थी रात की दहलीज,

इस दिल की लगी बुझाने कहाँ चले आये|

वक्त ने हमे इस कदर कर दिया हैं मजबूर,

खुद से खुद को दूर कर कहाँ चले आये|

दरख्तों को हमी ने कर दिया हैं जमींदोज़,

पंरिदो को बेघर कर हम कहाँ चले आये|

दीवार बने खुद बैठे हैं अपनी ही राहो में,

अपनी ही बिगड़ी बनाने कहाँ चले आये|

गिरह किस कदर उलझ गयी हैं रिश्तों की,

बंधी ये गाँठे खोलने हम कहाँ चले आये|

गैर से रिश्तों की अब क्या करे शिकायत,

अपनो को बेगाना कर  कहाँ चले आये|

- अंजू निगम, देहरादून, उत्तराखंड