मेरा  शहर (कविता) = शकुन्तला शर्मा

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मैं  अपनें  शहर में, 
रहती हूँ शान  और इत्मीनान से, 
अपना  कहती  हूँ  इसे,
पर,,,,,
देखा करती हूँ,,,,, इधर-उधर, 
घर -घर, चौराहे-चौराहे ,
लटके हैं पिंजरे, 
हरियल तोतो के लिये, 
चाहतें हैं, पिंजरे  वाले,
भरे,-भरे  हों ये पिंजरे, 
कोशिश करतें हैं, 
चारों दिशाओं के तोते,  
उनके पिंजरे में हो, 
भरसक प्रयास ।
अपनें पास बुलाने का,
कि वे उनके  हो जायें, 
खुले आसमान में उड़ते, 
अपनी  मौज में,,,झुण्ड  से बिछड़, 
चुम्बकीय  हो,  आ जाते हैं 
पिंजरो  में, 
फङफङाते  हैं  ,
वे तो खुश  हैं, 
हरियलो को अपनी  बोली सिखाना, 
कालांतर में, 
पिंजरे के तोते बोलने  लगते हैं  उनकी  बोली
भूलते जाते हैं,  
अपना  निजीपन,
पराधीन बोली,,,,,कब तक?
थक जाते हैं, निढाल हो  जातें हैं, 
बेसुध  भी।
ओवरडोज हो जाता है उनका, 
पर,, होङ  कभी खत्म नहीं होती, 
पिंजरे लटकाने की, 
झूलते  रहते हैं पिंजरे, 
घर-घर चौराहे चौराहे, 
हर मोङो पर ,
इधर-उधर  भी,,।
आता है एक हरियल तोता,
कह जाता है 
मुझे किसी के हाथ में झूलते हुये पिंजरे के,
तोता मत  बनाना।
=  शकुन्तला शर्मा  
शिक्षाविद्,  चिंतक,  लेखिका, जयपुर ।