मुक्तक – डॉ. अशोक ‘’गुलशन’’
अब सिवा याद के कोई चारा नहीं,
भूल जाना तुम्हें है गवारा नहीं।
मेरे दिल पे तुम्हारा ही बस नाम है,
फिर न कहना मेरा दिल तुम्हारा नहीं।
मुझको खुद का अगर पता होता,
मैं न खुद से कभी जुदा होता।
साथ मिलता अगर तुम्हारा तो,
मैं भी इन्सां नहीं खुदा होता।
टूटा दिल है और न टूटे इसकी तुम कुछ दवा करो,
मैंने तुमसे वफा किया है तुम क्यों आखिर जफा करो।
मेरी बदनामी फैली है गाँव-गली-चैराहे तक,
मुझसे गर मिलना चाहो तो घर से बाहर मिला करो।
सुबह से शाम तक होगा अली से राम तक होगा,
हमारा युद्ध भी तुमसे हमारे काम तक होगा।
भले अच्छा नहीं लगता तुम्हारा साथ हो फिर भी,
हमारा यह मिलन तुमसे किसी अंजाम तक होगा।
कभी शंकर बनाया तो कभी घनश्याम कर डाला,
कभी शायर बना करके उमर खैयाम कर डाला।
नहीं बनने दिया मुझको कभी इन्सान दुनिया ने,
मुझे गुलशन बना करके मुझे बदनाम कर डाला।
जब- जब अपने स्वाभिमान पर धक्का लगता है
वेवश होकर तभी लेखनी शब्द उगाती है
जब गुलशन के फूल-फूल मुरझाने लगते हैं,
सच मानो ऐसे में फिर कविता बन जाती है।
-----डॉ० अशोक ‘’गुलशन’’
उत्तरी कानूनगोपुरा, बहराइच (उ०प्र०)