गुम सुम किताबें - जागृति

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अब मैं मुस्कुराना भूल गई हूं,

गुमसुम रहती हूं,

आलमारी में बंद मेरा अब दम घुटता है,

मैं तुम्हारे पास आना चाहती हूं,

लेकिन जब आलमारी से बाहर झांकती हूं ,

उदास हो जाती हूं,

तुम्हे यूं खाली बैठे देख,

कभी मेज पर सिर टिकाए,

सिसकियां भरती हूं,

कभी पतझड़ के पत्तों की तरह,

बिखरी पड़ी हूं,

सोचती हूं...

कोई मुझे हाथ में ले,चूम ले , सीने से लगाए,

या किसी की उंगलियां छू ले मुझे,

उठाने - गिराने के बहाने,

इंतजार करती हूं,

और ढूंढती हूं फिर उस सूखे गुलाब को,

लेकिन मायूस हो जाती हूं,

ये सोचकर...

कि उन्हें शायद किसी से मुहब्बत नही,

क्योंकि अब मैं मुस्कुराना भूल गई हूं,

उन्हें शायद मेरे लफ्जों के मायने आते नही...

- जागृति , प्रयागराज , उत्तर प्रदेश