मायका (लेख) - झरना माथुर 

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मायका यानि पीहर,माँ-बाप का घर। सही शब्दों में स्वतंत्रता व अधिकारों का घर। जहाँ पर माता पिता के प्यार के साथ - साथ भाई बहनों का प्यार, अपनी मनमानी करने का अधिकार ,कुछ गलत करने पे माँ की डाट,पापा का प्यार,भाई से झगड़ा व बहन से तकरार, कुछ खट्टा मीठा खुशियों का संसार।

वो अपना कमरा,अपना विस्तर,बचपन की सहेलियां,चाट, गोल गप्पे,,बारिश में भीगना, झूला झूलना, ढ़ेर सारी बातें और धमाल। वो सोलहवां सावन, आईना देखना,सजना- सवरना  कितना यादगार समय जो जीवन में कभी भुलाया नहीं जा सकता है और दुबारा जिया भी नहीं जा सकता है।

बदल जाता है सब कुछ शादी के बेटी से बहू बनते ही। मिल जाती है जिमेदारियो की सौगात। सास -ससुर से बच्चों तक का सबका खयाल,घर बाहर आने जाने वालों का सबका हिसाब। छूट गया पीछे वो बचपन,वो बेफिक्र एहसास। आज अपने लिये बनाते है कपड़े, न आता वो चाव न वो उल्लास। हर त्योहार पे माँ बाप का कपड़े लाना,माँ का तरह - तरह के स्वादिष्ट पकवान बनाना। आज खुद सबके लिए बनाती हूँ पर न खुद खा पाती, न आता वो स्वाद।

मायके जाने की जब मुश्किल से घड़ी आती भर जाती उमंग से डूब जाती सपनो में, करती मन मे नये विचार। अबकी मायके जाऊँगी तो ये करूंगी,वो करूंगी।

मायके पहुचते ही सबके गले मिलती, मिलता अपनापन, प्यार व दुलार। लेकिन जाने क़्यो होने लगता मन मे संकुचन,थोड़ी सी झिझक,चाहते हुए भी वह सब न कर पाती जो चाहती थी। अब लगने लगा था हो गयी हूँ पराई। किसी को मेरे कारण कोई परेशानी न हो अपने सामान को एक ही जगह ही रखती। सबसे सुनती ये ले जाना, वो ले जाना अपने घर। ध्यान रखना छूट न जाये कोई भी सामान। और चार दिन के बाद आँखों में आंसू भर कर ,विदा हो जाती अपने ससुराल मायके की यादों को सजोकर।

अब यही था मेरा संसार, मेरा घरवार, कर लेती सन्तोष जी भरकर। इसी मे रहूँगी, इसी मे बसूँगी, जो भी सपने है उन्हें दिल में संजोकर।

- झरना माथुर, देहरादून, उत्तराखंड