गृहणी की अंतर्द्वन्द व्यथा - प्रीति आनंद

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नहीं होना शामिल मुझे कवि गोष्ठी या सम्मेलन में,

मैं खुश हूँ अपने घर के चौका,चूल्हा और बेलन में।

क्या करूँगी मैं भला वहाँ सब से वाह-वाही पाकर,

मस्त हूँ बिल्कुल अपने घर में ही दाल-रोटी खाकर।

कवि दीर्घा में बैठ क्यों अपनी बारी का इंतज़ार करूँ,

नाम-प्रसिद्धि पाने को क्यों इतना सब इन्तज़ाम करूँ ।

क्यों लूँ किसी से मेरी योग्यता और प्रतिभा का प्रमाण ,

घायल व खुश करने को नहीं चलाना है शब्दों के बाण।

अपनी भाषा-शैली व व्यक्तित्व का नहीं डालना प्रभाव,

रोज कविता लिखने का मैं ना झेल सकूँगी इतना दबाव।

कोई क्यों बने प्रशंसक या कोई क्यों करे टिप्पणी-टीका,

दूसरों की ऐसी भावनाओं से, क्यों हो चेहरे का रंग फीका।

कविता मेरी बस भावाभिव्यक्ति, नहीं कोई लेखनी बंधन,

छोड़ काम काज घर के,कर नहीं सकती इसका प्रबंधन।

माना कवि देश,समाज,सहित्य में दे सकता है योगदान,

पर मैं एक साधारण गृहिणी हूँ मुझे बनना नहीं है महान।

-प्रीति आनंद, इंदौर , मध्य प्रदेश