ग़ज़ल - विनोद निराश

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मुझे है इश्क़ तुझसे ही, तेरा इकरार बाकी है,

जो छुपा रखा था अब तक, वो प्यार बाकी है।

तू मेरा हो या न हो, ये तेरी मर्ज़ी पे सनम,

तुझे चाहा है मैंने , तेरा अधिकार बाकी है।  

तू लाख कर नफ़रत मुझसे मैं प्रेम करता हूँ ,

लबों पे तेरे तबस्सुम का, इंतज़ार बाकी है।

खर्च की है बहुत रातें, तेरे लिए जाग कर ,

बस कमल नयनो से, तेरा इज़हार बाकी है।

खबर बन गया इश्क़ मेरा, गलियों की तेरी ,

बनना अब मेरा भी, इक इश्तहार बाकी है।

कर के आ गया बगावत, वास्ते तेरे निराश ,

तेरी जानिब से प्यार का, अभिसार बाकी है। 

 - विनोद निराश , देहरादून