ग़ज़ल - डॉ. अशोक ''गुलशन'
मेरी जिंदगी में था ग़म ही ग़म जो तुम आये तो मैं निखर गया ,
जो न रुक सका वो मैं वक़्त था तुम्हें देख के मैं ठहर गया |
यूँ ही रात भर मैं न सो सका मुझे और कोई न ख़्वाब दो,
मैं तो चाहता था बहार पर मैं खिज़ां के फूल सा झर गया |
तुम्हें पाना मेरा नसीब था तुम्हें पा के खोना अजीब था,
मेरी जुस्तजू मेरे साथ थी मैं ही जाने यार किधर गया |
चलो पास आये तुम इस तरह मेरी दूरियों के लेहाज़ से ,
मुझे पिछले ग़म का हो रंज़ क्यों जो गुज़र गया सो गुज़र गया |
तुम्हें धडकनों में उतारकर तुम्हें दिल में मैंने बसा लिया ,
मेरी हसरतों का हो आईना तुम्हें देख के मैं सँवर गया |
मेरी जिंदगी में हैं तल्खियां मेरी ज़िन्दगी में हैं ग़म ही ग़म ,
तुम्हें क्या सुनाऊँ मैं दास्ताँ सुना जिसने सुनते ही डर गया |
मेरे प्यार में हैं इबादतें तुम्हें मैंने माना खुदा सनम,
जो जुदा हुए कभी मुझसे तुम तो मन ज़िन्दा रहके भी मर गया |
मैं तुम्हारी साँस में बस गया कभी गीता और कुरआन सा ,
मैं तुम्हारे दिल की किताब था जो गली-गली में बिखर गया
- डॉ. अशोक ''गुलशन' 'उत्तरी कानूनगोपुरा, बहराइच (उ०प्र०)