निरखकर डूबता सूरज - डॉ अंजु लता सिंह

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निरखकर डूबता सूरज-

मेरा मन कुलबुलाता है,

कृषक हो ज्यों कोई कृषकाय-

अलविदा कहता जाता है।

सबके बाबा कहाते हैं-

सफर तय कर रहे नया.

शाम होने लगी है अब-

जिंदगी की,करें अब क्या?

निपट निर्जन राहें लंबी-

बीहड़ों से निकलती हैं,

घिसी जूती हैं कदमों में-

निकलने को मचलती है।

भाग्य का खेल है सब रे!

जूझने का है यह प्रतिफल,

टिकाए बेंत वसुधा पर-

खिलाता जा रहा शतदल।

- डॉ अंजु लता सिंह, नई दिल्ली