मिल भी नहीं सकते - विनोद निराश

 | 
pic

जैसे कल ही की बात हो ,

ऐसे याद आती हो तुम ,

याद आते है आज भी वो पलछिन,

जब हम और तुम,

जाड़ों की गुनगुनी ,

मीठी-मीठी धूप में बैठकर  ,

घंटो ढेर सारी बातें किया करते थे।

अनवरत चलती हँसी-ठिठौली के बीच,

तुम कभी-कभी तुनक पड़ती थी,

जब मेरे और तुम्हारे दरम्यां,

किलौल करते-करते,

कोई तीसरा आ जाता था,

तुम अनायास खिन्नता प्रकट करने लगती थी। 

अगले ही क्षण मैं ,

मैं तुम्हारी तर्जनी ऊँगली को पकड़कर,

अपनी उँगलियों के पोरों से,

मद्यम गति से जलते दीये की भाँति ,

सहलाने लगता था,

धीरे से तुम्हारा हाथ पकड़ कर ,

तुम्हे मना लेता था।

  

हल्की गुलाबी ठण्ड शुरू होते ही ,

मद्यम धूप देह को भाने लगी ,

बरबस ही तुम्हारी यादें आने लगी,

साथ ही याद आया मुझे ,

चाहत की चासनी में पगा प्रेम,

याद आने लगे वो सब मन्ज़र,

जो पल-पल सदियों सरीखे लगते है। 

आज जब कभी यादों की खिड़की से,

झिनी ख्वाहिशें झांकती है,

उरतल अवसादित हो जाता है ,

ये सोचकर सन्न रह जाता हूँ कि,

कभी तुम बातों-बातों में भी,

अपने से दूर नहीं होने देती थी,

और आज यथार्थ में इतनी दूर हो गए ,

कि निराश दिल मिल भी नहीं सकते।

- विनोद निराश, देहरादून