ग़ज़ल - मुकेश लाडों शर्मा
Sep 3, 2021, 10:42 IST
छू कर गर्दिश को भी मैं अकेला ही रहा |
मंजिल पास थी फिर भी भटकता ही रहा ||
यूँ तो शान बहुत है शहर में मेरी रब्बा |
फिर क्यों अन्दर ही अन्दर तन्हा ही रहा ||
पुत गई उदासी सी खुशियों पर मेरी यूँ |
मुसाफिर मैं अकेला, अकेला ही रहा ||
खाई थी कसमें साथ साथ चलने की |
मन मेरा उलझा सा, उलझता ही रहा |l
हुबाब सा था तेरा प्यार मैं समझ न सका |
हर दर ब दर 'मुकेश 'बस ढूंढता ही रहा
- मुकेश लाडों शर्मा, पानीपत (हरियाणा)