अधूरे किस्से - विनोद निराश

 

तन्हा सी इस ज़िंदगी में,

मद्यम हवा के झोखें सरीखे,

अनुरागित हो तुम आये थे कभी,

हंसीं ख्वाब की तरहा।

ख्वाहिशों के हर वर्क को,

लम्हा-दर-लम्हा,

संभाले रखा हमने भी,

तृष्ण ख्याल की तरहा।

मिलते रहे हम - तुम,

इक दास्तां सी बनती गई,

यूं ही दिन-ब-दिन,

अनसुलझे सवाल की तरहा।

फिर देखते-देखते

इश्क़ से लबरेज़,

खूबसूरत ज़िंदगी हो गई, 

मुकम्मल किताब की तरहा।

अचानक मुड़ने लगे चाहतों के वर्क,

शायद न पलटने के लिए,

तुम छोड़ गए तन्हा मुझे, 

अधूरे हिसाब की तरहा।

एक लम्बी आस के बाद,

निराश मन सोचता रहा,

शायद मुड़े वर्क अब न होगे सीधे,

उस अधूरे जवाब की तरहा।

- विनोद निराश, देहरादून