रूपमाला छंद - अर्चना लाल

 

भाव मेरे जब कभी भी , रूठते है मीत।

मूंद आँखों को तभी मैं, गुनगुनाती गीत।।

पुष्प की बगिया सजाती, साथ रहती लिप्त।

चीरती फिर से निशा को , लौ हमेशा दीप्त।।

हूँ ज़रा नादान पर मैं  ,  रच रही अनमोल।

ज्ञान थोड़ा मंद लेकिन, बोलती इक बोल।।

व्यर्थ की इस वेदना को, अब रही मैं त्याग।

बे वजह ही ये हृदय में , फिर लगाती आग।।

प्रेम की पूजा करूँ मैं,  प्रेम हीं है सत्य ।

जब कभी जीवन रुलाये, प्रीत ना हो मर्त्य।।

आज के इस दौर में गर, तुम रहो जब साथ ।

जीत लूँगी मैं जहाँ को,  छोड़ना मत हाथ ।।

- अर्चना लाल , जमशेदपुर, झारखण्ड