रोला छंद - अर्चना लाल

 

अनुबंधित है रात , कहर बनती जब तृष्णा।

अंग -अंग मुस्कान, कौन देखेगा कृष्णा ।।

मौन रहे संवाद ,  व्यथा ही  शोर  मचाए।

पर हँसती दिन रात , यही लोगों को भाए।।

दुर्मिल सवैया छंद - अर्चना लाल

जब दूर गए घन बादल के, फिर धीरज क्यों मुख मोड़ रहा।

बरसे  बदरा  अब नैनन से,  हृद  को  बस मौन  मरोड़ रहा।

दिल में यदि प्रीत नहीं अपनी,अब जीवन का नहिं छोर रहा।

सब बात युगों पहले लिख दी, अब ना अपनों पर जोर रहा ।।