माघ - मुकेश कुमार दुबे
वर्ष का एकादस मास है माघ,
ठंडी जैसे हो रही हो बाघ।
संकटनाशक गणेश चतुर्थी मनाते,
विघ्न-बाधा सब दूर भगाते।
बसंत पंचमी का त्यौहार है आता,
सरस्वती पूजा सबके मन भाता।
होने लगेगी ठंढ कम अब,
बसंत ऋतु भी आएगी अब।
बसंत उत्सव की करो तैयारी,
मिलेगी सबको खुशियां प्यार की।
बौर लगने शुरु होंगे आमों पर,
कोयल भी आकर कुकेगी डालों पर।
पर विरही सजनी रोती रहती,
मुंह से वह कुछ भी नहीं कहती।
अश्रुधारा भी जैसे सुख चले हो अब,
मेरे साजन आओगे तुम कब।
कौन देगा मुझे दाना-पानी,
रो-रो कर कहती दुखिया रानी।
बार-बार आकर सखियां समझाती,
पर उनकी भी जैसे हिम्मत टुटती।
प्रकट में उससे कुछ भी न कहती,
पर अपने में सब बातें करती।
कितने निष्ठुर हो गए इनके साजन,
ऐसे भी कोई छोड़ता है क्या घर-जन।
कह कर गए जल्दी आएंगे,
घर चलाने को धन कमाकर लाएंगे।
पर अब तक नहीं अता-पता नहीं,
क्या हुआ कुछ कह सकते नहीं।
घर पर भी तो कमा सकते थे,
खेती भी तो कर सकते थे।
रहते दोनों साथ-साथ यहां,
ऐसे दिन देखने पड़ते कहां।
इस दुनिया के दिन भारी है,
इस पर ही आई विपदा सारी है।
दे गया पेट में एक निशानी,
कैसे उसे जन्म देगी यह रानी।
दिन पर दिन दुख बढ़ता ही जाता,
खत्म होने को ही नहीं आता।
- मुकेश कुमार दुबे "दुर्लभ"
(शिक्षक सह साहित्यकार), सिवान, बिहार