गीत -  जसवीर सिंह हलधर

 

मंच से कुछ नामधारी व्यर्थ करते गर्जनाएं ।

लोग पत्थर के हुए हैं मर चुकी संवेदनाएं ।।

रोज विष का पान करती रो रही गंगा हमारी ,

सात दशकों में दिखी  सरकार की करतूत सारी ,

युक्तियाँ पायी नहीं जो रोक दें  दूषित  प्रथाएं ।

लोग पत्थर के हुए हैं मर चुकी संवेदनाएं ।।1

बिंब, रूपक, छंद वाला रुक गया साहित्य का रथ ,

चाकरों के हाथ बंदी मंच का सीधा सरल पथ ,

सारथी साहित्य के ही भूल बैठे सच दिशाएं ।

लोग पत्थर के हुए हैं मर चुकी संवेदनाएं ।।2

कौन समझेगा हमारी कौम की अंतर व्यथा को ,

कौन परखेगा हमारे छंद को सच्ची कथा को ,

कथ्य की मरने लगीं हैं अर्थगत संभावनाएं ।

लोग पत्थर के हुए हैं मर चुकी संवेदनाएं ।।3

सात तारे आसमां के लुप्त ऋषिवर दिख रहे हैं ,

धुंध ने धरती ढकी है सुप्त दिनकर दिख रहे हैं ,

यंत्र युग में मंत्र की हम खो रहे वैदिक ऋचाएं ।

लोग पत्थर के हुए हैं मर चुकी संवेदनाएं ।।4

नाद पश्यन्ती,परा ने मौन व्रत धारण किया है ,

मध्यमा ने वैखुरी से द्वंद किस कारण किया है ,

लेखिनी के जोर से अब तोड़ "हलधर" ये शिलाएं ।

लोग पत्थर के हुए हैं मर चुकी संवेदनाएं ।।5

 -  जसवीर सिंह हलधर , देहरादून