गीत - जसवीर सिंह हलधर

 

गाँव गली की धूल फांककर बड़ा हुआ है ।

तूफानों की मार झेलकर खड़ा हुआ है ।।

तपते शोलों की लपटों के बीच पला है ।

समय समय पर सत्ताओं ने खूब छला है ।।

अब तक नहीं मरा जो मौसम की मारों से ।

संसद की मारों से घायल पड़ा हुआ है ।।

तुफानो की मार झेलकर  खड़ा हुआ है ।।1।।

पथरीली राहों पर देखो रोज चला है ।

जूते पाँव नहीं है नंगे पाँव जला है ।।

सरकारों ने रौंदा तोडा और मरोड़ा ।

धरापूत फिर भी खेतों में अड़ा हुआ है ।।

तूफानों की मार झेलकर खड़ा हुआ है ।।2।।

गेंहू की बाली में दाना कब आयेगा ।

मंडी में दानों से पैसा कब पायेगा ।।

कब आयेगी कानों की बाली बेटी की ।

प्रश्न लचीला नहीं लौह सा कड़ा हुआ है ।।

तूफानों की मार झेलकर खड़ा हुआ है ।।3।।

कर्जे का दानव कब तक उसको खायेगा ।

उसका बेटा ही लड़ने सरहद जायेगा ।।

हलधर "प्रश्न पूछता है सत्ताधीशों से ।

किसने दोष भाग्य में उसके जड़ा हुआ है ।।

तूफानों की मार झेलकर खड़ा हुआ है ।।4।।

- जसवीर सिंह हलधर , देहरादून