गीत - जसवीर सिंह हलधर

 

माना मैं खामोश रहा ,पर तुम भी तो कुछ बोल न पाए ।

मंचों पर चढ़ गए चुटकुले, दो पग आगे डोल न पाए ।।

कविता का वरदान मिला था , हम साहित्यक महा रथी थे।

मुक्त छंद के मकड़जाल को ,बुन लाये कुछ भ्रमित पथी थे।

अपने सिद्ध पीठ से उठकर ,असली राह टटोल न पाए ।।

माना मैं खामोश रहा पर तुम भी तो कुछ बोल न पाए ।।1

बहुत सरल होता है कविवर , ऊंची ऊंची बात बनाना ।

लेकिन काम कठिन है भाई , श्रोता से ताली बजवाना ।

छंदों का संहार हुआ जब, क्यों अपना मुँह खोल न पाए ।।

माना मैं खामोश रहा पर तुम भी तो कुछ बोल न पाए ।।2

सच है इस खींचा तानी में , टूटे हिंदी  महल कंगूरे ।

कविता हुई बंदरिया इनकी, मंचो पे छा गए जमूरे ।

मैं तो छंदों में बंदी था , तुम भी सच को तोल न पाए ।।

माना मैं खामोश रहा पर तुम भी तो कुछ बोल न पाए ।।3

सच है दौड़ नहीं पाए हम , रुपयों की आपा धापी में ।

सम्मानों के वितरण में भी, झोल हुआ नापा-नापी में ।

"हलधर" कटु साहित्य हुआ जब, मीठा उसमें घोल न पाए ।।

माना मैं खामोश रहा पर ,तुब भी तो कुछ बोल न पाए ।।4

- जसवीर सिंह हलधर , देहरादून