समझने को तड़प जाओ - सुनीता मिश्रा

 

लिखने की ...

एक ख्वाईश थी...

कि लिखूँ तुझे...

तुझे निहारी तुझे पढी़...

पर लिख न पाई तुझ पर ...

एक शब्द भी...

खुद पर लिखना ...

ज्यादा सरल था...

न निहारने की जरूरत ...

न पढ़ने की...

बस कलम उठाई और ...

लिखने बैठ गई...

जो आज हूँ वही ...

कल भी रहूँगी...

फर्क होगा तो ...

सिर्फ छवि में...

सुरत बदलेगी मेरी ...

पर सिरत नहीं...

खुद को ...

आज भी प्यार करूँगी...

और कल भी...

खुद को जानने का...

दावा कर सकती हूँ...

पर तुझको नही....

इसलिए ...

अब तुझ पर नहीं...

खुद पर लिखूँगी...

कुछ ऐसा कि...

तुम मजबूर हो जाओ...

मुझे पढ़ने को...

मुझे समझने को...

और तड़प जाओ ...

मुझे पाने को....

.सुनीता मिश्रा, जमशेदपुर