ग़ज़ल - विनोद निराश

 

ज़िंदगी कम तबाह थोड़े ही है,

हम पर वो निग़ाह थोड़े ही है।

याद आती है शब् भर उनकी,

बात बताना गुनाह थोड़े ही है।

दर्दे-दिल उभर आया लबों पे,

पर इतना बे-पनाह थोडे ही है।

रात कैसे कटी ये मुझसे पूछो,

तन्हा चाँद गवाह थोड़े ही है। 

शबे-फुरकत भी गुजर जायेगी,

दूर सहर की राह थोड़े ही है।

कई बार टूटा ये दिले-निराश,

मगर उसे परवाह थोड़े ही है।

- विनोद निराश, देहरादून

दर्दे-दिल - ह्रदय पीड़ा

शबे-फुरकत - विरह रात्रि / जुदाई की रात

सहर – सुबह