ग़ज़ल - रीता गुलाटी

 

मन को भाता सावन,

तू लगता मन भावन।

घायल सा होता तन,

कब खिलेगा अब चमन।

तेरी याद सताती,

अमावस सा हुआ मन।

मन भटकत है हरदम,

कब होगा गम हिरन।

मैं चाहूं अपनापन,

झूमे है मेरा मन।

मन तड़फत आज सजन,

मिले तेरी अब  छुअन।

कब होगे अब दरशन,

मन बाजे अब खन खन।

- रीता गुलाटी ऋतंभरा, चण्डीगढ़