ग़ज़ल - विनोद निराश ​​​​​​​

 

नहीं होते हो जब, तब भी तुम होते हो,  

हर वक़्त खुद में ही महसूस होते हो।

मैं सदियों से खामोश पड़ा दरवाज़ा हूँ,

और तुम रोज़ दरीचे खोल के सोते हो।

जब-जब रोना आता है हँस देता हूँ मैं,

इक तुम हो जो ख़ुशी में भी रोते हो।

कभी दर्दे-दिल का अहसास कर लेना,

तुम जो नफरत के बीज बहुत बोते हो।

झूठ समझ के मेरा विश्वास कर लेना,

पहली मुहब्बत को भला क्यूँ खोते हो।

तू कभी हाथ बनके दस्तक दे दिल पे,

क्यूँ रस्मो का बोझ तन्हा ही ढोते हो।

मैं तो कईं बार टूट के बिखरा निराश,

तुम क्यूँ ये आँखे अश्कों से धोते हो।

- विनोद निराश , देहरादून