ग़ज़ल - अर्चना लाल

 

लिखूँ हर रोज ही अपनी , ग़ज़ल गम-ए-निराशा पे।

पढ़ो तुम शौक़ से जीती रही खामोश आशा पे।

कहूँ क्या दिल कि बातें सब, कभी बीती हँसी पल की ।

हमीं फिसले सनम तेरी , जुबाँ मीठी व् भाषा पे ।

अजब उलझा यहाँ जीवन, नहीं चलती मेरी साँसें।

मगर लोगों का क्या हंसते रहे मेरी हताशा पे।

सभी वो ख़्वाब जो बरसों , पले दिल की ज़मी पर थे।

मिटे सब देख कर तेरी , यही बुज़दिल तमाशा पे ।

हवाएं सर्द  ये सिहरन,   कहाँ  दे दर्द को  ठंडक

करूँ अब प्यार या नफ़रत, तेरे मातम रुआँसा पे।

- अर्चना लाल, जमशेदपुर , झारखण्ड