ग़ज़ल (हिंदी) - जसवीर सिंह हलधर

 

दर्द किसी ने झेला जितना झेला जाता ।

मजबूरी का पापड़ कितना बेला जाता ।

कौन बताए किसने माल कमाया कितना ,

माल उसी ने पेला जितना पेला जाता ।

घोटाले ही घोटाले होते भारत में ,

जुर्म करे उस्ताद जेल में चेला जाता ।

छोटे छोटे शहरों में अब मॉल खुले हैं ,

खत्म हुए बाज़ार कौन अब मेला जाता ।

ऊबड़ खाबड़ रस्तों पर डेरा है अपना ,

काम न आए कार उसे भी ठेला जाता ।

गुड की डली नहीं देता जो मजबूरों को ,

आह बने हथियार हाथ से भेला जाता ।

रूप पुराना बदल गया है अब मुद्रा का ,

रुपया करता व्यंग कहां तू धेला जाता ।

दीवारों के कान पूछते प्रश्न अनौखे ,

खेल हमारे पीछे ही क्यों खेला जाता ।

एक नहीं उस द्वार हज़ारों जाते 'हलधर',

मयखाने तो यार शाम को रेला जाता ।

- जसवीर सिंह हलधर , देहरादून