ग़ज़ल (हिंदी) - जसवीर सिंह हलधर
Sep 21, 2024, 23:49 IST
दर्द किसी ने झेला जितना झेला जाता ।
मजबूरी का पापड़ कितना बेला जाता ।
कौन बताए किसने माल कमाया कितना ,
माल उसी ने पेला जितना पेला जाता ।
घोटाले ही घोटाले होते भारत में ,
जुर्म करे उस्ताद जेल में चेला जाता ।
छोटे छोटे शहरों में अब मॉल खुले हैं ,
खत्म हुए बाज़ार कौन अब मेला जाता ।
ऊबड़ खाबड़ रस्तों पर डेरा है अपना ,
काम न आए कार उसे भी ठेला जाता ।
गुड की डली नहीं देता जो मजबूरों को ,
आह बने हथियार हाथ से भेला जाता ।
रूप पुराना बदल गया है अब मुद्रा का ,
रुपया करता व्यंग कहां तू धेला जाता ।
दीवारों के कान पूछते प्रश्न अनौखे ,
खेल हमारे पीछे ही क्यों खेला जाता ।
एक नहीं उस द्वार हज़ारों जाते 'हलधर',
मयखाने तो यार शाम को रेला जाता ।
- जसवीर सिंह हलधर , देहरादून