ग़ज़ल( हिंदी) - जसवीर सिंह हलधर

 

मुझे शहरी नहीं मानो निशानी गांव में भी है ।

यहाँ है नौकरी खेती किसानी गांव में भी है ।

न छोड़ी है जमीं मैंने भले ही आसमां चूमा ,

अभी माँ बाप की कुटिया पुरानी गांव में भी है ।

मेरे खुशहाल रहने की दुआ दिनरात करती है ,

जुबाँ पर मात के मेरी कहानी गांव में भी है ।

यहां बीती जवानी अब बुढापा दे रहा दस्तक ,

मगर बचपन की यादों की रवानी गांव में भी है ।

गवाही दे रहा है आज भी वो पेड़ बरगद का ,

वो जिसकी छांव ए सी से सुहानी गांव में भी है ।

कबूतर भी उड़ाते थे पतंगें भी उड़ाते थे ,

मेरी नादानियों की सच बयानी गांव में भी है ।

मुसाफ़िर हैं पहाड़ों में मुहाजिर मान मत लेना ,

अभी पहचान अपनी खानदानी गांव में भी है ।

अभी मत और कह "हलधर" बढ़ी सूची है शे'रों की ,

अगर उला यहाँ पर है तो सानी गांव में भी है ।

 - जसवीर सिंह हलधर, देहरादून