गीतिका -- मधु शुक्ला

 

कोलाहल जग में ज्यादा या, मन में ज्यादा शोर,

त्रस्त हृदय यह जान न पाये, वह जाये किस ओर।

संबंधो में ताने बाजी, उपजाती दुख धुंध,

रोके रहती अश्रु हमेशा, भीगी दृग की कोर।

हर घर में उत्पात मचाती, स्वार्थ द्वेष की अग्नि,

ढोल द्वंद का चुगली पीटे, जले शांति का छोर।

पूर्ण शक्ति से भ्रष्टाचारी, नोंचें हृद का मांस,

आहत कीं चीखें करतीं हैं, शोर बड़ा घनघोर।

गद्दारों से हमदर्दी की, कष्ट दे रही नीति,

ताल ठोंक कर कहें ठहाके, शेर बनेंगे चोर।

 – मधु शुक्ला, सतना, मध्यप्रदेश