दोहे - प्रियदर्शिनी पुष्पा

 

जीवन अपने आप में, होता अद्भुत लक्ष्य।

साधन को नित साधते, अंत: गति के भक्ष्य।।

अधोभाग में मेदिनी, सिर पर नभ विस्तार।

चट्टानों सा लक्ष्य नित, लेते सरि आकार।।

सागर सा अन्यून हो, उम्मीदों के पाव।

कठिन लक्ष्य पलते तभी, लौह स्वप्न के छाव।।

लाख लक्ष्य को पालिए, देकर नर्म पनाह।

किंतु अल्प उत्साह हो, पल में होते दाह।।

गिर जाने का भय सदा, होता उनके पास।

जीने के दस्तूर में, जिनका लक्ष्य उदास।।

लक्ष्य  मार्ग में हों भरे, कंटक भरे पहाड़।

या रिपु का षड्यंत्र हो, पल में लेते ताड़।।

कंदुक रूपी हार का, करते सफल प्रबंध।

हिम्मत का बल्ला घुमा, पाते लक्ष्य बुलंद।।

- प्रियदर्शिनी पुष्पा "पुष्प", जमशेदपुर