ना जाने काहे अकुलाये - अनिरुद्ध कुमार
तनके सुगना कुछ चाहेला, बेचैनी में इत उत धाये।
ओर छोर ना दिखे किनारा, ना जाने काहे अकुलाये।।
लाख मनाई मानत नइखे,
केहू कइसे का समझाये।
रामें जानस का चाहतबा,
रह रह के उतपात मचाये।
तोले मोले डगमग डोले, दीवाना अपने सुर गाये।
ओर छोर ना दिखे किनारा, नाजाने काहे अकुलाये।।
लागेला कवनों उलझन में,
काया माया में भरमाये।।
जिनगी एकर बनल पहेली,
व्याकुलता में खेल दिखाये।
साँस ताल पर थिरके हरदम, मन मोहे जब गीत सुनाये।
ओर छोर ना दिखे किनारा, ना जाने काहे अकुलाये।।
भाव भावना सदा हिलोरे,
पलक खोल नैना रह जाये।
माया मोहे बोल न पाये,
नयन गगरिया के छलकाये।।
अतुल प्रेम ई कइसन बाटे, लोभी भोगी भी छल जाये।
ओर छोर ना दिखे किनारा, ना जाने काहे अकुलाये।।
जिनगी भर के दाव पेंच में,
सुगना बंधन तूर पराये।
ज्ञान ध्यान सब कथा कहानी,
हीरा मोती काम न आये।
चित्रकार के चरण पखारीं, सब कुछ झाँकी बन रह जाये।
ओर छोर ना दिखे किनारा, ना जाने काहे अकुलाये।।
खाली आयें खाली जायें,
ताजीवन लड़ते रह जायें।
अंत काल कोई ना पूछे,
फूल चढ़ायें सर लटकाये।
जार खोरके करें बिदाई, पल में तन माटी हो जाये।
ओर छोर ना दिखे किनारा, ना जाने काहे अकुलाये।।
- अनिरुद्ध कुमार सिंह, धनबाद, झारखंड