कुमाऊँ का प्रचलित त्यौहार घुघुतिया - कविता बिष्ट

 

vivratidarpan.com - हमारे देश की संस्कृति, संस्कार, त्यौहार, खान-पान, रहन-सहन ही हमारी देश की पहचान है. जिनमें अपनत्व सौहार्द हर्षोल्लास विद्यमान है। बहुत महत्वपूर्ण है हमारे आस-पास के पशु-पक्षी। हमारी संस्कृति हमें सभी जीव-जंतुओं से प्यार मोहब्बत सिखाती हैं। बिना पक्षियों के घर भी सुना लगता है जब आस-पास चहकते है तो अपनत्व सौहार्द की अनुभूति होती है। घुघुती त्यौहार  में भी कौवे का आना और आकर "घुघुती" 'जो कि आटे गुड़ और घी से बनाये जाते है' "घुघुती खाकर कांव-कांव करना" शुभ माना जाता है। आजकल शहरों में रहने के कारण रिहायशी इलाकों में कम ही पेड़-पौधे बचे है तो चिड़िया भी हमसे जैसे रूठ ही गई है। मैने भी अभी अपने घर के बगल में खाली प्लॉट में 5 साल पहले कुछ पेड़ लगाए थे अब वो बड़े हो गए। बहुत ख़ुशी होती है,चिड़िया फिर से आने लगी है। कौआ जो कि घुघुती त्यौहार का आकर्षण है। फिर से घरों में आने लगेगा तो त्यौहार मानना भी सार्थक हो जायेगा। हमारे त्यौहार जितने महत्वपूर्ण है उतने ही महत्त्व हमारे जिंदगी में पेड़-पौधे पशु-पक्षी भी रखते है। और हम सब शुद्ध हवा-पानी में अपना जीवन यापन करगें।

घुघुतिया त्यौहार कुमाऊं में बहुत हर्षोउल्लास के साथ मनाया जाता है। मकर संक्रांति के दिन भगवान सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करते है। सौर मंडल में बहुत बड़ा बदलाव होता है, जिसमें सूर्यदेव अपनी चाल बदलकर दक्षिणायन से उत्तरायण की ओर चलने लगते है। इसलिए भी इस त्यौहार को उत्तरायणी का त्यौहार भी कहा जाता है। मेरा जन्म ऐसे स्थल में हुआ जहाँ कुमाऊँ और गढ़वाल के त्यौहारो को महत्व दिया जाता है दुशान्त में रहने वालों को दोनों तरफ के रीति-रिवाज त्यौहारो को मनाने का मौका मिलता है, और दोनों तरफ के हर त्यौहारो को हर्षोउल्लास से मनाते है। मकर संक्राति के दिन हम भी बचपन में बहुत खुश हुआ करते थे। घर में पूरा परिवार एकजुट होकर आटे में गुड़ मिलाकर घुघुति बनाते थे। उसी आटे की लोई से अलग-अलग डमरू ढोलक, चिड़िया चाँद सूरज पशु पक्षी आदि की कलाकृतिया बनाते थे। सभी बच्चो के साथ खाने खेलने का उत्साह देखते ही बनता था. और हाँ खिचड़ी की भी परम्परा है, जो कि गढ़वाल में प्रचलित है, उड़द की  दाल की लाजबाब खिचड़ी और उसमें घी डालकर गरम खाने का मज़ा ही अलग है। हम सभी भाई बहन माँ पिताजी के साथ सुबह पूजा-पाठ करके तिलक लगाते थे, बस जल्दी होती थी, गरमागरम पकवान खाने की, वो दिन भी बहुत ही अच्छे थे, तब आज की तरह पैकेटस के फूड नही मिला करते थे। हम तो बस त्यौहारो का इंतजार करते थे। खूब सारे पकवान बनते थे, नए कपड़े पहनने का शौक और  रिश्तेदारों का आना-जाना मन को बहुत लुभाता था।

 मकर संक्रांति के दिन से सूर्य उत्तरी  गोलार्ध की तरफ चलते हैं,  एक और मौसम गर्मी का आगमन होता है। इसलिए इस त्यौहार को माघी भी कहते है। पौराणिक महाभारत के अनुसार भीष्म पितामह ने उत्तराणी के दिन अपना देह को त्यागा था।

तमिलनाडु में पोंगल, गुजरात में उत्तरायण, पंजाब में माघी, असम में बीहू और उत्तर प्रदेश में खिचड़ी कहा जाता है। इस त्यौहार का महत्व इतना है कि यह भारत के आसपास के देशों में भी मनाया जाता है। आज के दिन पतंग उड़ाने का भी प्रचलन है, गुजरात में पतंग का प्रचलन है, और गुड़ तिल के लड्डू बनाये जाते है, ठंड का मौसम और उसी के अनुरूप पकवान खान- पान त्यौहार यही तो बात अनोखी है हमारे देश की, जहां पर इतने रंगों रिवाज़ों के साथ त्यौहार मनाए जाते है।

कुमाऊँ का प्रसिद्ध त्यौहार दो दिन मनाया जाता है, पहले दिन घुघुति बनाकर धागे की माला में गूथ लेते हैं। अगले दिन सुबह उठकर बच्चे सुंदर कपड़े पहनकर, तिलक लगाकर अपने छतों में जाते है और कोवे को बुलाते है (काले कौआ काले घुगति माला खाले) कर्णप्रिय लोरी गाकर कौवे को बुलाया जाता है. हमारे समाज में कौवे की भी अहम भूमिका रही है। पूर्वजों का दूत माना जाता रहा है, कोई श्राद तर्पण हो या मन्दिरो घरो में पूजा अर्चना हो कौवे के लिए गाय के लिए खाना निकाला जाता है मैं समझती हूँ कि पौराणिक परम्परा संस्कृति संस्कार सभी प्रकृति के अनुरूप ही सुशोभित किये जाते थे, प्रकृति को बहुत महत्व दिया जाता था पेड़ो की पूजा जीव-जंतुओं पशु- पक्षियों को उच्च स्थान देना हमारे भारत वर्ष की परम्परा चली आ रही है। जो कि त्यौहारो के रूप में मनाए जाते रहे है।

त्यौहार के संबंध में अनेक कथाएं प्रचलित हैं उन्ही में से एक प्रचलित कथा यह है कि - कुमाऊँ के चंद्र शासक कल्याण चंद की कोई संतान नहीं थी। इसलिए उन्होंने मकर संक्रांति के पर्व पर बागेश्वर (कुमाऊं क्षेत्र ) जाकर सरयू और गोमती  के पवित्र संगम पर स्नान कर भगवान बागनाथ की पूजा करते हुए उनसे पुत्र प्राप्ति के लिए प्रार्थना की ।

 भगवान भोलेनाथ ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और अगले मकर संक्रांति में उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हो गई। कल्याण चंद ने अपने पुत्र का नाम निर्भय चंद्र रखा, लेकिन माता उसे प्यार से घुगुती पुकारती थी। राजकुमार निर्भय के गले में मोती की एक माला हमेशा रहा करती थी जिसमें घुँघरू लगे थे। जिसे देखकर वह बालक बहुत प्रसन्न होता था, और वह उस माला से बड़ा स्नेह रखता था। किंतु जब कभी वह रोने लगता या जिद करने लगता तो माता उसे चुप कराने के लिए कहती “अरे घुघुती चुप हो जा, नहीं तो तेरी यह प्यारी सी माला मैं कौवे को दे दूंगी और जोर-जोर से चिल्लाती “ काले कौवे  आ जा घुगुति की माला खा जा। इस पर बालक डर से चुप हो जाता । कभी-कभी कौवे सच में ही आ जाते थे , राजकुमार उनको देखकर खुश हो जाता और रानी उन कौवों को कुछ पकवान खाने को दे देती, लेकिन राजा का एक दुष्ट मंत्री इस राज्य को हड़पने की बुरी नियत से राजकुमार को मार डालना चाहता था. इसी वजह से वह एक दिन राजकुमार को उठाकर जंगल की तरफ चल दिया, लेकिन इस घटना को उसके साथ खेलने वाले एक कौवे ने देख लिया और वह कौवा जोर-जोर से कांव-कांव करके चिल्लाने लगा । उसकी आवाज सुनकर और भी कौवे वहां पर इकट्ठे हो गए और सभी जोर-जोर से चिल्लानेलगे। राजकुमार की गले की माला हाथ में थी, एक कौवे ने झपटकर उसकी माला उसके हाथ से ले ली और सीधे राजमहल की तरफ उड़ गया। कौवे के मुंह में राजकुमार की माला देखकर और राजकुमार को वहां ना पाकर सभी लोग घबरा गए। कौवा माला को लेकर कभी इधर घूमता कभी उधर घूमता और कभी जोर-जोर से चिल्लाने लगता । तब राजा की समझ में आया कि राजकुमार किसी संकट में है, और वह कौवे के पीछे-पीछे जंगल की तरफ चले गए । जहां मंत्री डर के मारे राजकुमार को छोड़कर भाग चुका था। रानी अपने पुत्र को पाकर बहुत प्रसन्न हुई और वह कौवों का एहसान मानकर उन्हें हर मकर संक्रांति पर पकवान बना कर खिलाती थी,  और राजकुमार के जन्मदिन के अवसर पर कौवों को बुलाकर पकवान खिलाने की यह परंपरा उन्होंने राज्य भर में आरंभ कर दी। ऐसी दंत कथाएं बहुत त्यौहारों से जुड़ी होती है।

कही न कही कथाओं में प्रकृति प्रेम और जीव-जंतुओं का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। और त्यौहारों से यही समझाया गया है निश्चित तौर पर कि हमारे ब्रह्मांड में जितने सौर मंडल हो या जीव- जंतु पशु-पक्षी मौसम रंग पर्यावरण सभी हमसे जुड़े हुए है।

बहुत दुःख की बात है, आज हमारा पर्यावरण इतना दूषित हो गया है कि बर्ड फ्लू ने पैर पसारे है, हमारे इर्द-गिर्द पक्षी मूर्छित हो रहे है मर रहे है। हमें मिलकर त्यौहारों में संकल्प लेना होगा कि पंछी भी हमारे जीवन का अहम हिस्सा है इन्हें बचाना हमारा परम् कर्तव्य है, कल कौवे को घुगुति खिलाने को बच्चे कर्णप्रिय लोरी सुनाएंगे तो बेजुबान पंछी कुछ कह भी नही पाएंगे वे बेज़ुबान पंछी तो इंसानों द्वारा पीड़ा को सहने में मजबूर है, अपने फायदे के लिए इंसान ने पर्यावरण, प्रकति की सौगात पशु-पक्षियों को भी खतरे में डाल दिया है।पर्यावरण का दूषित होना इसका बहुत बड़ा कारण है।

आज हमें पारम्परिक त्यौहारों से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। इन प्रचलित पौराणिक दंत कथाओं एवम त्यौहारों को बढ़ावा देकर आने वाली पीढ़ी को आकर्षित करना अनिर्वाय है। मकर संक्रांति लोहड़ी सभी त्यौहार खुशी के प्रतीक है। हमारे पूर्वजों ने हमे मौसम के हिसाब से खान-पान रहन-सहन सीखाया है। हर वस्तु विशेष पर ध्यान दिया है। चाहे सूर्य, चन्द्र, तारे  अग्नि जल, थल, पेड़, जंतु, पक्षी हो या मौसम रंग या फिर  ब्रह्माण्ड सभी का महत्व हमारे जीवन में सर्वोपरि है। आज भी माँ के हाथ के पकवान और घुघुति की खुशबू मुझे मेरे पहाड़ की तरफ आकर्षित करती है। जहाँ लगभग हर महीने के संक्रांत में त्यौहार मनाए जाते थे। पूड़ी, खीर, हलुवा, दाल बड़े गरम पकोड़े, आलू के गुटके और खीरे का रायता जिसमें राई पीसकर डाली जाती है, अहा मुँह में पानी आ जाता है और ऐसे त्यौहारों को प्रचलित करके हम अपनो के करीब होते है। घर में त्यौहारों  के बहाने आना जाना लग रहता है। और बधाई शुभकामनाएं देने की परम्परा सदा बनी रहती है। आज के दिन घुघुति बनेगी लेकिन पंछी का अस्तित्व बचाना भी हमारा परम् कर्तव्य है। तभी तो आने वाली सुबह कौवे आकर घुघुति का मज़ा ले पायंगे और हमारी आने वाली पीढ़ी त्यौहारों की ख़ुशी को अपनो के संग बाँट पायेगी।

~कविता बिष्ट 'नेह', देहरादून , उत्तराखंड