ज़िंदगी - मीनू कौशिक

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ज़िंदगी.....,

कैसी छलिया है री तू ?

तूने मुझे.... ,कैसे-कैसे न छला !!

आँखें खुली ,तो लगा....

माँ के दूध और गोद में है तू ।

थोडा़ संभला... ..

तू गायब हो गई  !

मैं तुझे ...खेल-खिलौनों में

ढूँढ़ने लगा ।

तू भी मेरे संग खेल खेलने लगी ।

मैं जैसे ही ...

बचपन की शरारतों में खोने लगा ,

तो तू ...फिर से फिसल गई !!

और न जाने ,कहाँ खो गई ?

तेरी खोज में निकला ,

तो जवानी से मिला ।

तो लगा ....जैसे ,यही तो है तू!!

जवानी के नशे में ,

प्रेयसी के ख्वाबों में ,

कामिनी की बातों में ,

उसके संग बीते दिन-रातों में,

उसके कोमल स्पर्श में ,

तेरे होने को महसूस करने लगा

और प्रेमिका को ही जिंदगी समझ,

जवानी की रंगरलियों में खोने लगा

जवानी का नशा ढला ,

तो नजरें नई मंजिलों पे टिकी

तो लगा लक्ष्य को पालूँ....

तो जिंदगी से मिलूँ !

लक्ष्य को पाया....

तो लगा ,तुझे पाया।

लेकिन यह क्या?

संतान में तू दिखने लगी !!

जिम्मेदारियों से थकने लगा

तो लगा इनसे निपटूँ ,

तो जिंदगी को जिऊँ!

तब तक.....

शिथिल होने लगा बदन,

भारी होने लगा मन ,

जरा और व्याधियों से ,

घिरने लगा तन ।

तो लगा...

इनसे छूटूँ ...तो जिऊँ !

तभी मौत ने दस्तक दी

और पूछा... 

कैसा रहा ..जिंदगी का सफ़र ?

लेकिन...

कोई उत्तर नहीं था मेरे पास।

अब समझा था...

स्थिर होना था

भागना नहीं था

बदहबास ।

जिंदगी ....यानी समय ,

समय के ....हर पल में ,

आनंद ही है .....जीवन !

दुख और अशांति ...मृत्यु !!

️मीनू कौशिक "तेजस्विनी ", दिल्ली