अपना शहर - झरना माथुर

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अपना ही शहर अब अजनबी सा,

मुझको क्यों ये लगने लगा है।

सुकून था दिल को कभी जो मेरे,

न जाने कहीं खोने लगा है।

अब न वो बारिशें है

न वो मिट्टी की सोंधी सोंधी खुशबू,

धीरे-धीरे इस जमीं का,

वो सोंधापन कहीं खोने लगा है।

वो तितली, भंबरो का गुनगुन,

चिड़ियों  का चहकना  अब कहां है?

न जाने क्यों मेरे शहर का,

चुलबुलापन कही खोने लगा है।

सूरज की  पहली किरण और,

बर्फ की चोटियां खिड़की से न दिखती,

अब लोगों के  मकान ऊंचे और,

दिलों का प्यार खोने लगा है।

झरना माथुर, देहरादून, उत्तराखंड