ये कैसा आखेट - डॉ. सत्यवान सौरभ

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दो पैसे क्या शहर से, लाया अपने गाँव ।

धरती पर टिकते नहीं, अब ‘सौरभ’ के पाँव।।

सपने सारे है पड़े, मोड़े अपने पेट ।

खेल रहा है वक्त भी, ये कैसा आखेट ।।

उलटे लटकोगे यहाँ, ज्यों लटका बेताल ।

अपने हक की बात पर, पूछे अगर सवाल ।।

हीरे-मोती मत दिखा, रख तू अपने साथ ।

सौदागर मैं प्यार का, चाहे तो कर हाथ ।।

नेह-स्नेह सूखे सभी, पाले बैठे बैर ।

अपने गर्दन काटते, देते कन्धा गैर ।

‘सौरभ’ मन गाता रहा, जिनके पावन गीत ।

अंत वही निकले सभी, वो दुश्मन के मीत ।।

ये भी कैसा दौर है, कैसे सोच-विचार ।

घड़ा कहे कुम्हार से, तेरा क्या उपकार ।।

-डॉ. सत्यवान सौरभ, उब्बा भवन, आर्यनगर, हिसार (हरियाणा)-127045