इस बसंत में - विनोद निराश

बसंत लौट आता,
काश तुम लौट आते ,
जो तुम होते,
मधुमास हो जाता,
इस बसंत में।
मैं अभी भी प्रतीक्षारत हूँ ,
मगर तुम नहीं आये ,
देर तक याद आता रहा,
पिछला बसंत ,
इस बसंत में।
कोयल की कूक भी कानो में,
मिश्री नहीं घोल रही ,
न भ्रमर की गूँज सुनाई दे रही ,
पलाश और अमलतास के फूल झर गये ,
इस बसंत में।
फूलों की मधुर बेले भी,
कुम्लाह सी गई ,
पुष्पदलो की रगंत फीकी पड़ गई।
हवा के झोंको में वो शोखी नहीं
इस बसंत में।
भंवरे सरसों के फूलों का,
रसपान मदमस्ती से नहीं कर रहे ,
अलग अलग पेड़ो पर जाकर ,
जैसे कुछ खोया हुआ तलाश रहे हो।
इस बसंत में।
तुम बाँहों में समां गई थी,
जैसे पिछले बसंत में।
एक पागल भ्रमर ,
लिपट रहा है फूल से ऐसे ,
इस बसंत में।
मानो लगता है ऐसे ,
घटाएं छा रही हो हर तरफ जैसे ,
दिल में उल्लास कम है ,
मन निराश है तुम्हारे इंतज़ार में,
इस बसंत में।
- विनोद निराश , देहरादून