त्याग (कहानी) - डॉ.परमलाल गुप्त

 | 
pic

vivratidarpan.com - रात्रि का चौथा पहर था। सारी मथुरा नींद में अलसायी पड़ी थी। कृष्ण ने फुर्ती से उठकर घुड़साल से घोड़ों को लाकर रथ में जोता और क्षिप्र गति से दक्षिण की ओर चल पड़े। इस बीच उन्होंने रथ चलाना सीख लिया था और वे अच्छे सारथी बन गए थे। उनका लक्ष्य अपने नाना से मिलना था। उनके नाना अवन्तिका के राजा थे परन्तु वे कंस की शक्ति के सामने वसुदेव और देवकी की सहायता नहीं कर सके थे। इसका उन्हें बहुत मलाल था। कृष्ण उन्हें आश्वस्त करना चाहते थे।

कृष्ण को यह भी मालुम था कि उनकी भुआ कुन्ती का विवाह हस्तिनापुर के राजा पाण्डु से होने वाला था। हस्तिनापुर का सारा हाल कृष्ण को विदित था, क्योंकि हस्तिनापुर उस समय शक्ति का विशेष केन्द्र था। भीष्म पितामह की ख्याति दूर-दूर तक थी। कृष्ण को पता था कि पाण्डु किसी नारी के साथ रतिक्रिया नहीं कर सकते। उन्हें ऐसा रोग है कि ऐसा करने पर उनकी मृत्यु हो जाएगी। इसलिए वे इस विवाह को रोकना चाहते थे परन्तु नियति को कुछ और ही मंजूर था। कृष्ण भविष्य भी जानते थे, पर वे अपने कत्र्तव्य का निर्वाह करना चाहते थे।

पर्वतों की घाटियों और जंगलों के बीच से यमुना के किनारे ही उनका रथ दौड़ता रहा और कृष्ण अपनी भावी भूमिका का ताना-बाना अपने मन में बुनते रहे। सूर्यास्त के पूर्व ही वे लम्बी यात्रा तय करके अपने नाना के पास पहुंच गए। कृष्ण के नाना को मथुरा के समाचार मिल चुके थे और कृष्ण के प्रति उनके मन में प्यार उमड़ रहा था। वे मथुरा जाने की सोच ही रहे थे कि कृष्ण को अपने सामने देखकर उन्हें अपार हर्ष हुआ। कृष्ण ने उनके चरण छुए, तो उन्होंने उन्हें हृदय से लगा लिया। परिवार के अन्य लोग भी कृष्ण के इर्द-गिर्द जमा हो गए और उनकी प्रशंसा करने लगे।

रात्रि विश्राम के बाद कृष्ण ने कुन्ती को देखा। कुन्ती के मुख पर विषाद की गहरी छाया थी। उसके सौंदर्य की आभा को जैसे किसी ग्रहण की छाया ने ढंक लिया हो। कृष्ण ने पूछा- 'भुआ जी, आप ठीक तो हैं?’

'हां, मैं ठीक हूं। मुझे क्या होना है?’ कुन्ती ने चलता-सा उत्तर दिया। उनके लहजे में चहकता हुआ उल्लास नहीं था।

कृष्ण से कोई व्यक्ति अपना राज छिपा नहीं सकता था, क्योंकि उनमें किसी दूसरे के अंतर्मन तक पहुंचने की अद्भुत शक्ति थी। बातों ही बातों में उन्होंने जान लिया कि कुन्ती कुंवारी मां बन चुकी है।

कुन्ती ने भी स्वीकार करके कहा- 'यह सब उससे अनजाने में हो गया।‘ महर्षि दुर्वासा ने उसे एक लेप दिया था और कहा था कि इसके लगाने पर तुम जैसे पुरुष की कामना करोगी, वह तुम्हारी इच्छा पूर्ण करेगा। मैं यौवन के उद्दाम वेग में बह रही थी। खेल समझकर ही मैंने उस लेप को लगाया और उदीयमान सूर्य को देखकर एक तेजस्वी पुरुष की कामना की। इसके बाद मैं स्वयं अपने को भी भूल गई। सूर्य के समान उस तेजस्वी पुरुष ने मेरे साथ रति क्रिया की। पूर्ण संतुष्टि के बाद जब मुझे होश आया, तब तक वह पुरुष जा चुका था। मैंने उसे बहुत तलाशा परन्तु वह पुरुष फिर नहीं मिला। मुझे गर्भ रह गया। मैं क्या करती? मैं लोक-लाज से अपने प्राण त्यागना चाहती थी। इसमें मां की ममता आड़े आ गई। उसने अपनी सहेली के पास मुझे भेज दिया। निर्धारित समय में मैंने सूर्य के समान तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। उसे मैं अपने पास नहीं रख सकती थी। इसलिए एक लकड़ी की पेटी में रखकर उसे यमुना में बहा दिया। कृष्ण ने सांत्वना देते हुए कहा- 'भुआ जी, आप चिन्ता न करें, आपकी गणना सदैव कुआरियों में होगी। इसमें आपकी गलती नहीं है। इसलिए अपने मन से अपने को दोषी समझने की भावना निकाल दें और प्रसन्न चित्त होकर रहें। यह सब नियति का खेल है।‘

कृष्ण के इस कथन से कुन्ती को बहुत राहत मिली और वह सामान्य नारी की अनुभूति से आप्लावित हो उठी। उसने कहा- 'कृष्ण, तुम सचमुच बहुत अच्छे हो। तुम्हारे कहने से अब मैं कुछ न सोचूंगी और सब भविष्य पर छोड़़ दूंगी।‘

'बस भुआ, यही जीवन का सकारात्मक सोच है। मनुष्य को कर्ता भाव छोड़कर अपनी समझ से कत्र्तव्य का पालन करना चाहिए।‘ कृष्ण ने कहा।

'कृष्ण, तुम यह बात किसी से कहोगे तो नहीं। मैंने तुम्हें अपना समझकर ही सब बता दिया है।‘ कुन्ती ने शंका की।

'नहीं भुआ, मैं तो नहीं कहूंगा, परन्तु कालान्तर में यह सब लोग जान जाएंगे। इसके लिए आपको डरना नहीं चाहिए।‘ कृष्ण ने आश्वस्त किया। वे पाण्डु के साथ उनकी शादी से भी निश्चित थे, क्योंकि उस समय संतान न होने पर पति की सहमति से नियोग की प्रथा थी। कुंवारी मां बनना अवश्य वर्जित था। कृष्ण के चिन्तन में कोई व्यक्ति या भू-भाग न होकर समग्र  राष्ट्र था। वे समग्र राष्ट्र को एक सूत्र में बांधना चाहते थे और उससे अन्याय और अत्याचार मिटाना चाहते थे। उनकी दृष्टि हस्तिनापुर पर थी। हस्तिनापुर में भीष्म सबसे शक्तिशाली पुरुष थे। उन्हें युद्ध में कोई नहीं हरा सकता था परन्तु उनकी सारी सोच राजकुल में सीमित हो गई थी। कुन्ती के कारण वहां कुछ परिवर्तन हो सकता था।

कृष्ण कुछ दिन अपने ननिहाल में रहे। ब्रज और मथुरा उनकी सोच में नहीं रहे। राष्ट्र-सेवा से प्रेरित होकर उन्होंने पच्चीस वर्ष की उम्र तक ब्रह्मïचर्य का पालन करते हुए शक्ति और ज्ञानार्जन का व्रत लिया। इसलिए सबके रोकने के बावजूद उन्होंने उज्जयिनी के महर्षि संदीपनि के आश्रम में रहने का निश्चय किया और उसी दिशा की ओर चल पड़े। चलते समय उन्होंने सबको आश्वस्त किया कि समय आने पर वे उनसे मिलते रहेंगे। कुन्ती से उन्होंने कहा- 'आप मेरी मां के समान हैं। आप पर कोई आंच नहीं आने दूंगा।

कृष्ण के जाने से एक सन्नाटा-सा छा गया। कृष्ण निर्विकल्प से कुछ सोचते हुए चले गए। कृष्ण को जो देखता था, वही उन पर लट्टïू हो जाता था। कृष्ण का व्यक्तित्व और सौंदर्य के साथ शक्ति का समन्वय ही ऐसा था कि लोगों का मन बांध लेता था। गांवों में ठहरने में उन्हें कोई परेशानी नहीं होती थी। लोग उल्टे उनका अधिक से अधिक सान्निध्य पाने को लालायित रहते थे। उन सबसे सहचर का नाता बनाकर कृष्ण, संदीपनि के आश्रम पहुंचे। महर्षि संदीपनि, द्रोणाचार्य की तरह किसी राजपरिवार के गुरु नहीं थे। इसलिए उन्होंने कृष्ण का स्वागत किया और उन्हें अपना शिष्य बना लिया।

उस समय गुरुकुलों में न कोई शुल्क लिया जाता था और न दक्षिणा। सारे शिष्य, गुरु के परिवार के सदृश रहते थे और भोजन-वस्त्र आदि की व्यवस्था गुरुकुल में ही होती थी। सबको गुरु की आज्ञा का पालन करना पड़ता था। कोई जंगल से लकड़ी लाता था, कोई फल-फूल या भिक्षा का अन्न। जो मिले उसी से संतोष करना पड़ता था। आश्रम में गायें भी पाली जाती थीं। उससे दूध-दही आदि मिल जाता था। गुरुकुल में दिनचर्या निश्चित थी। बारी-बारी से सबको सब काम करने पड़ते थे। प्रात: ब्रह्मï बेला में उठना, नित्यकार्य से निवृत्त होकर योग, प्रार्थना, वेदपाठ, ज्ञानचर्या आदि, फिर भोजन का प्रबंध एवं भोजनोपरान्त विश्राम, सायंकाल संध्या-प्रार्थना। भोजन, वस्त्र, शयन सबमें सादगी एवं संयम।

गुरुकुल में भी कृष्ण लोकप्रिय हो गए थे, वहीं उनकी मित्रता सुदामा से हुई। उस समय गुण, कर्म एवं स्वभाव के अनुरूप वर्ण-व्यवस्था थी परन्तु इसमें कुछ सख्ती आने लगी थी। यह वर्ण-व्यवस्था जाति-व्यवस्था के रूप में ढल रही थी। गुरुकुल में शिष्य की रुचि और उसके वर्ण के अनुसार भी शिक्षा का प्रावधान था। सुदामा ब्राह्मïण था, अत: उसे उसकी वृत्ति के अनुसार शिक्षा दी जाती थी। कृष्ण जातिवाद को नहीं मानते थे परन्तु उनकी वृत्ति क्षत्रित्व की थी। अत: उन्हें अस्त्र-शस्त्र की भी शिक्षा दी गई। कोई भी शिष्य अपनी रुचि के अनुसार शिक्षा पाने का अधिकारी था। कृष्ण ने पच्चीस वर्ष की उम्र तक का समय आश्रम में बिताया। इसके बाद वे गुरु की आज्ञा लेकर सबसे विदा हुए। आश्रम से विदा लेकर कृष्ण ब्रज या मथुरा में नहीं गए। वे दक्षिण पूर्व की ओर समुद्र तट पर पहुंचे। मार्ग में अनेक ग्रामीण एवं भील उनके साथ हो गए। उन्हीं के सहयोग से उन्होंने समुद्र तट पर द्वारकापुरी बसाई। उन सबको उन्होंने जीविका के अनेक साधन और कृषि के साथ गौ-पालन एवं लघु उद्योग सिखाये। पहले वे जंगल में शिकार करके अपना जीवन-यापन करते थे। जानवरों की खाल और पत्तों से शरीर ढंकते थे और वृक्षों तथा कन्दराओं में रहते थे। वहां गोमती, गंगा नदी थी, जो द्वारकापुरी के समीप ही समुद्र में मिलती थी। उसके किनारे कई सुविधाएं उपलब्ध थीं। अत: वे सब पत्थरों से घर बनाकर द्वारकापुरी में रहने लगे। कृष्ण उनके स्वाभाविक राजा बन गए। कुछ समय बाद उन्होंने ब्रज और मथुरा के परिजनों को भी द्वारका बुला लिया। बलराम तो वैसे ही कृष्ण के बिना बेचैन थे। वे तुरन्त अपने संगी-साथियों को लेकर वहां पहुंच गए और व्यवस्थित रूप में सेना भी तैयार हो गई।

सारे राष्ट्र में द्वारकाधीश के रूप में कृष्ण को मान्यता मिल गई। उनकी गणना भी शक्तिशाली राजा और एक विशिष्ट व्यक्ति के रूप में होने लगी। कृष्ण का उद्देश्य द्वारका की सीमा में बंधना नहीं था। वे सारे राष्टï्र को दिशा  देना चाहते थे। इसके लिए अपनी पात्रता भी उन्हें मनवानी थी इसलिए उन्होंने कई यात्राएं कीं और कई ऐसे कार्य किए जो सामाजिक और राजनैतिक दृष्टि से महत्व के थे। (विनायक फीचर्स)