संदेह और विश्वास की मौलिकता - भूपेश प्रताप सिंह

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Vivratidarpan.com - संदेह और विश्वास दोनों एक दूसरे के विपरीत अर्थ वाले शब्द हैं। यदि हम किसी पर संदेह करते हैं तो इसका सीधा अर्थ है कि हम उस पर विश्वास नहीं करते और जिस पर हम विश्वास करते हैं उस पर संदेह करने का प्रश्न ही नहीं उठता।यदि यह पूछा जाए कि  आपको अमुक व्यक्ति पर कितना विश्वास है और आप यह कहें कि 90% 80% 50% तो इसका सीधा अर्थ है कि आप झूठ बोल रहे हैं क्योंकि विश्वास या तो पूर्ण है या तो नहीं है। यह वैसे ही है जैसे आसमान में सूर्य या तो है या तो नहीं है, चंद्र या तो है या नहीं है क्योंकि अपूर्णता कभी भी पूर्णता का स्थान नहीं ले सकती। यह एक क्रम है जो पूर्णता की तरफ बढ़ता है। हममें से कोई भी प्राणी पूर्ण नहीं है, वह पूर्णता की तरफ बढ़ना भी नहीं चाहता। कारण एक ही है कि जीवन में उसकी  अपेक्षाएँ  अधिकतर अपने इर्द-गिर्द हो रही घटनाओं से प्रभावित होती हैं। वह उन्हें ही प्राप्त करना चाहता है जिससे उसे अधिक -से -अधिक धन अर्जन हो और दूसरों के बीच अपना सम्मानजनक स्थान सुरक्षित कर सके। प्रायः यह देखा जाता है कि किसी भी समाज में अलग- अलग विचारधारा के लोग रहते हैं परंतु वह सभी एक साथ मिलकर अपने सामाजिक कार्यों को आगे बढ़ाते हैं और एक दूसरे का सहयोग करते हैं। फिर भी यह एक ध्रुव सत्य है संदेह कभी भी पूरी तरह से गलत हो ऐसा कहना उचित न होगा। संदेह एक मानसिक वृत्ति है जो जो हर व्यक्ति के अंदर उत्पन्न होती ही है। यह हमें कुछ शोध करने हेतु आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। हर बार संदेह अनुचित हो यह जरूरी नहीं, इसमें भी सकारात्मकता का पुट होता है ।हमें उसे पहचानना चाहिए और उसका सम्मान करते हुए शोध करना चाहिए। कई बार ऐसा होता है कि अधिक संदेश भी विनाश का कारण बन जाता है और कई बार ऐसा भी होता है दूसरों पर पूर्ण विश्वास करने वाला व्यक्ति अपना समूल खो देता है। अतः दोनों स्थितियों के मध्य संतुलन बनाए रखना ही जीवन की कला है। यदि हम संतुलित होंगे तो  सकारात्मक निर्णय ले सकेंगे और सामाजिक और राष्ट्रीय उन्नयन के कार्यों में एक दूसरे के भागीदार बन सकेंगे।

त्याग एक दैवीय गुण है जो मानव में होता ही है पर परिस्थितिजन्य  कारणों से स्वार्थ का वशीभूत व्यक्ति इसका आदर नहीं करता, जो भय का कारण है। एक ऐसा भय जो अनदेखा और अनजाना होता है। भविष्य में यह हर किसी को उसके मूल से दूर कर देता है। त्याग और संग्रह के मध्य किसी को पहचानने और उस कार्य के दूरगामी परिणाम को सोचने के लिए हमें अपनी चिंतन शक्ति का विकास करना ही होगा। कई बार ऐसा होता है जब हम उसका त्याग कर देते हैं जो संग्रह के योग्य होता है और हम उसको ग्रहण कर लेते हैं जो त्यागने योग्य होता है। इसका परिणाम यह होता है कि हम अपने मूल उद्देश्य को खो देते हैं या हम वहाँ तक नहीं पहुँच ही नहीं पाते।कारण जो भी हो लेकिन यह निश्चित है जब हमारा विवेक कुंठित होता है, जब हमारा चिंतन धूमिल होता है जब हम समस्या के मूल कारणों की खोज नहीं करते और समस्या का समाधान करने निकल पड़ते हैं तो असफलता ही हाथ लगती है। इस असफलता का परिणाम केवल हम व्यक्तिगत रुप से नहीं भोगते बल्कि आने वाली हमारी सन्ततियाँ  वर्षों वर्षों तक इसे एक अभिशाप के रूप में झेलने के लिए विवश होती हैं। यह एक चिंतन है जिस पर विचार किया जाना चाहिए और आने वाली पीढ़ियों का मार्गदर्शन व्यवस्थित तरीके से किया जाना चाहिए। विश्वास और संदेह ये दोनों शब्द सुनने में व्यक्तिपरक लगते हैं लेकिन वस्तुतः ये शब्द समग्रवादी हैं। इनका प्रभाव व्यक्ति विशेष तक ही सीमित न रहकर पूरे समाज -राष्ट्र को प्रभावित करता है। पीढियों के व्यवस्थित मार्गदर्शन का आशय केवल इतना भर है कि यदि हमारी पीढ़ियाँ  सुशिक्षित होंगी, सच्चरित्र होंगी और विवेकशील होंगी तो हम एक सुदृढ़ राष्ट्र का निर्माण कर सकेंगे और यदि ऐसा न हो सका तो हमारे प्रयास विफल होंगे।इसका परिणाम यह होगा कि हम अपनी सांस्कृतिक विरासत और सामाजिक संचेतना को खो देंगे। अतः यह आवश्यक है हम जहाँ भी हो वहाँ  रहते हुए अपने राष्ट्र और संस्कृति  की मौलिकता को पहचानें और बंधुत्व के साथ ही विश्वबंधुत्व की भावना को बल प्रदान करते हुए वैश्विक कल्याण के लिए कार्य करें।

-  भूपेश प्रताप सिंह, प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश, फोन नंबर -  8826641526