हास्य और व्यंग्य के सूक्ष्म अंत - विवेक रंजन श्रीवास्तव

 | 
pic

Vivratidarpan.com - साहित्य की दृष्टि से  मानवीय वृत्तियों को आधार मानकर व्याकारणाचार्यों ने नौ मूल मानसिक भावों हेतु  नौ रसों का वर्णन किया है। श्रंगार रस अर्थात रति भाव, हास्य रस अर्थात हास्य की वृत्ति , करुण रस अर्थात शोक का भाव, रौद्र रस अर्थात क्रोध, वीर रस अर्थात उत्साह, भयानक रस अर्थात डर, वीभत्स रस अर्थात घृणा या जुगुप्सा, अद्भुत रस अर्थात आश्चर्य का भाव  तथा शांत रस अर्थात निर्वेद भाव में सारे साहित्य को विवेचित किया जा सकता है। वात्सल्य रस को दसवें रस के रूप में कतिपय विद्वानों ने अलग से विश्लेषित किया है, किन्तु मूलत: वह श्रंगार का ही एक सूक्ष्म उप विभाजन है। रसो की  यह मान्यता विवादास्पद भी रही है, परंतु हास्य की रसरूपता को सभी ने निर्विवाद रूप से स्वीकार किया है। हमारा प्राचीन संस्कृत साहित्य भी हास्य व्यंग्य से भरपूर है। कालिदास के रचना कौशल का यह एक उदाहरण दृष्टव्य है। राजा भोज ने घोषणा की थी कि जो नया श्लोक रचकर लाएगा उसे एक लाख मुद्राएँ पुरस्कार में मिलेंगी परंतु पुरस्कार किसी को मिल ही नहीं पाता था क्योंकि  मेधावी दरबारी पंडित नया श्लोक सुनते ही उसे दुहरा देते और इस प्रकार उसे पुराना घोषित कर देते थे। किंवदंती के अनुसार कालिदास ने अपने चातुर्य से एक श्लोक सुनाकर दरबारियों की  बोलती बंद कर दी थी। श्लोक में कवि ने दावा किया कि राजा निन्नानबे करोड़ रत्न देकर पिता को ऋणमुक्त करें और इस पर पंडितों का साक्ष्य ले लें। यदि पंडितगण कहें कि यह दावा उन्हें विदित नहीं है तो फिर इस नए श्लोक की रचना के लिए एक लाख दिए ही जाएँ।  इस तरह  दोनों ही स्थितियों में राजा को मुद्रायें देनी ही होती।  इस तरह कैसा छकाया का भाव बड़ी सुंदरता से सन्निहित है।

 हास्य का प्रादुर्भाव असामान्य आकार, असामान्य वेष, असामान्य आचार,  असामान्य अलंकार, असामान्य वाणी, असामान्य चेष्टा आदि भाव भंगिमा द्वारा होता है।  इन वैचित्र्य  के परिणाम स्वरूप जो असामान्य स्थितियां बनती हैं वे  चाहे अभिनेता की हो, वक्ता की हो,या अन्य किसी की उनसे हास्य का उद्रेक होता है। कवि कौशल द्वारा हमें  रचना में इस तरह के अनुप्रयोग से  आल्हाद होता है, यह विचित्रता हमारे मन को पीड़ा न पहुंचाकर,  हमें गुदगुदाती है, यह अनुभूति ही हास्य कहलाती है। हास्य के भाव का उद्रेक देश-काल-पात्र-सापेक्ष होता है. अपने घर पर कोई उघारे बदन बैठा हो तो दर्शक को हँसी न आवेगी किंतु किसी उत्सव में भी वह इसी तरह बिना समुचित वस्त्रों के पहुँच जाए तो उसका आचरण प्रत्याशित से विपरीत या विकृत माना जाने के कारण उसे हँसी का पात्र बना देगा। युवा महिला साज श्रंगार करे तो यह सर्वथा उचित ही है किंतु किसी  बुढिय़ा का अति साज श्रंगार परिहास का कारण होता है।  कुर्सी से गिरनेवाले को देखकर  हम हँसने लगेंगे परंतु छत से गिरने वाले बच्चे पर हमारी करुणापूर्ण सहानुभूति ही उमड़ेगी। अर्थात  हास्य का भाव परिस्थिति के अनुकूल होता है।

ह्यूमर (शुद्ध हास्य), विट (वाग्वैदग्ध्य), सटायर (व्यंग्य), आइरनी (वक्रोक्ति) और फार्स (प्रसहन) अभिव्यक्ति की किंचित बारीक अंतर वाली विधायें हैं।  ह्यूमर और फार्स हास्य के विषय से संबंधित हैं जबकि विट, सटायर और आइरनी का संबंध उक्ति के कौशल से है।  पैरोडी (रचना परिहास अथवा विरचनानुकरण) भी हास्य की एक विधा है जिसका संबंध रचना कौशल से है। आइरनी का अर्थ कटाक्ष या परिहास है। विट अथवा वाग्वैदाध्य को एक विशिष्ट अलंकार कहा जा सकता है। अपनी रचना द्वारा पाठक में हास्य के ये अनुभाव उत्पन्न करा देना हास्य रस की  रचना की सफलता  है। व्यंग्य के पुराने प्रतिष्ठित सशक्त हस्ताक्षरो में हरिशंकर परसाई ,शरद जोशी , रवींद्रनाथ त्यागी , श्रीलाल शुक्ल जी का नाम लिया जाता है। बाबा नागार्जुन को व्यंग्यकार के रूप में नहीं पहचाना जाता पर मैं जब जब नागार्जुन को पड़ता हूं मुझे उनकी कविताओ में छिपा व्यंग्यकार बहुत प्रभावित करता है। नागार्जुन हमेशा जन कवि बने रहे और व्यंग्यकार भी हमेशा जन के साथ ही खड़ा होता हैं। हास्य और व्यंग्य में सूक्ष्म अंतर निहित होता है। जब द्रौपदी ने दुर्योधन को उसके इंद्रप्रस्थ के महल की वास्तु कला के चलते जमीन को जल समझने की त्रुटि के कारण अंधे का बेटा अंधा कह कर कटाक्ष किया तो उसके परिहास में व्यंग्य का संमिश्रण था। पर जब काका हाथरसी किसी रूपसी के हाथों में कुत्ते का पिल्ला देखकर स्वयं अगले जन्म में पिल्ला बनने की कामना करते हैं तो उनके व्यंग्य में हास्य होता है। गहरा व्यंग्य भले ही ऊपर से हंसाये किन्तु उसका आंतरिक आघात भीतर ही भीतर रुलाता है। लोकभाषा में जब हमारी महिलायें विवाह के बाद जेवनार में बारात का स्वागत गारियां गाकर करती हैं तो हंसी हंसी में ही वे गहरे व्यंग्य और कटाक्ष करती हैं। इन विवाह लोक गीतों में , परस्पर विरोधी भाव सौंदर्य का मनोवैज्ञानिक दर्शन निहित होता है , जिसमें बेटी की विदाई के दुख को कारुणिक हास्य में प्रस्तुत करने का अद्भुत शब्द सामर्थ्य देखने मिलता है। इस तरह स्पष्ट है कि हास्य और व्यंग्य अनुपूरक हैं। जिनके साथ साथ प्रयोग की दक्षता व्यंग्यकार के अभिव्यक्ति कौशल पर निर्भर है।  अतिश्योक्ति, विलोम का प्रयोग व्यंग्य को सशक्त करता है। (विनायक फीचर्स)