गीत - मधु शुक्ला

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व्यथा अपनी कहें किससे, सुमन यह सोचता मन में।

यहाँ पर सब लुटेरे हैं, न अपनापन किसी जन में।

मिला तन और मन कोमल, मगर साथी मिले कंटक।

नहीं जब चैन किस्मत में, लिए क्यों जन्म हम नाहक।

हमें मिलता न शुभचिंतक, न मिलता हर्ष उपवन में..... ।

खुशी  सब  चाहते  हम  से, खुशी  लेकिन  नहीं  देते।

पवन, जल, धूप, सब  मिलकर, हमारा  नूर  ले  लेते।

नहीं मन देखता कोई, रहे बस दृष्टि आनन में........ ।

करूँ  मैं  ईश  से  विनती, सबल  सबको  बनाना  प्रभु।

बना कमजोर कुछ जन को, न परवश कर रुलाना प्रभु।

किसी को भेजकर जग में, न देना दर्द धड़कन में........ ।

-  मधु शुक्ला, सतना, मध्यप्रदेश