कभी सोचता हूँ - विनोद निराश

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कभी सोचता हूँ ,

बारिस में रख दूँ ,

ज़िंदगी के उन पन्नो को ,

जिन पर आज ,

वक़्त की गर्द जम चुकी।

कभी सोचता हूँ

कहीं धुल न जाए ,

वो कस्मे-वादे, कुछ यादें,

जो किये थे कभी,

डूबते सूरज की कसम खा कर । 

कभी सोचता हूँ ,

कही गला न दे ,

तेज़ बारिस की ज़िद्दी बूंदे ,   

उस अधूरे वर्क को जिस पर ,

तेरी मुहब्बत के निशां बाकी है।

कभी सोचता हूँ ,

कि फिर से लिखूं मैं ,

कोई किताब मुहब्बत की,

जिसकी प्रस्तावना तुम, उपसंहार मैं रहूँ, 

रूपरेखा में कोई तीसरा न हो।

कभी सोचता हूँ,

क्या मेरा ये सोचना वाज़िब है,

या वहम है कोई निराश दिल का,

जो हर पल ख़ामोशी इख़्तियार किये रहता है,

इक नया ख्वाब तामीर करने को।

- विनोद निराश , देहरादून