संघर्षों का दौर - पूनम शर्मा

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संघर्षों का दौर ये कैसा, मिल हमको बतलाते है।

मानव के कद उसके आगे, छोटा ही पड़ जाते है।।

धरा से उठकर धारा में ही ,हर मानव फिर मिल जाते है।

दो रोटी की खातिर फिर भी , क्या क्या कर्म निभाते है।।

दिखे नहीं ये दर्द किसी को , उपहास मिल जग उड़ाते है।

कोई अपने में ही उलझा , पर जीता है मर जाते है ‌।।

दांवपेच है काम बड़ों का , ये कुर्सी जो संजोते हैं।

इनके हाथ तो जीवन में ,बस अहम दो ही निवाले हैं।।

ख्वाब भी छोटे आशा छोटी , पर होते बड़े दिलवाले हैं।

झुके नहीं मुश्किल के आगे, ये इतने हिम्मतवाले हैं।।

काला गोरा रंग नहीं , चेहरे पर मुस्कान सजाते हैं।

मेहंदी की खुश्बू की जगह , धूल यहां रच जाते हैं।।

दो जोड़ी में भी खुश होकर , जीवन ये बिताते हैं ।

मिले कभी जो कोई हमसे, आदर से गले लगाते हैं।।

संघर्षों का दौर ये कैसा, मिल हमको बतलाते है।

मानव के कद उसके आगे, छोटा ही पड़ जाते है।।

- पूनम शर्मा स्नेहिल, जमशेदपुर