"फागुन आयो रे' साझा काव्य संग्रह की समीक्षा - समीक्षक: ‘रावशिवराज पाल सिंह

 | 
pic

Vivratidarpan..com नई दिल्ली (दीप्ति शुक्ला) - "फागुन आयो रे" नाम से बंग भवन, नई दिल्ली में आयोजित फाग उत्सव में भाग लेने का अवसर मिला
और उसी नाम से इस अवसर पर प्रकाशित "फागुन आयो रे" नाम के साझा काव्य संग्रह में सहभागिता निभाने और अन्य सहभागी कवि और कवियत्रियों की रचनाओं को पढ़ने और उनके कृतित्व को जानने का अवसर भी मिला।
विश्व विख्यात नृत्य गुरु पंडित बिरजू महाराज की सुयोग्य सुपुत्री आदरणीय ममता महाराज के मुख्य आतिथ्य में आयोजित इस कार्यक्रम में यह देखने को मिला कि किस तरह सीमित संसाधन के बावजूद केवल इच्छाशक्ति और समानधर्मी सहयोगियों के साथ कितना कुछ मुश्किल  काम आसानी से सफल हो सकता है। इस कार्यक्रम और इस साझा संग्रह के पीछे प्रधान सम्पदिका . प्रतिभा  शर्मा एवं  संस्थापिका  . दीप्ति शुक्ला और उन के द्वारा अपने पिता श्री के नाम पर उन की स्मृति को चिरस्थाई करने के निमित्त स्थापित केशव कल्चर संस्था के तहत किया गया यह कार्य बहुत महत्वपूर्ण पहल के रूप में याद किया जाना चाहिए।
स्टेज पर कार्यक्रम व्यवस्थित रूप से चले इसके लिए पूर्व में संस्था की संस्थापिका सुश्री दीप्ती शुक्ला द्वारा अच्छी तैयारी की गई जिसे कथक गुरु दुर्गेश्वरी सिह 'महक' एवम्  विनीता लवानिया ने अपने प्रभावी और सफल संचालन से चार चांद लगा दिए। सभी प्रतिभागी बहुत सारी शुभकामनाएं देते हुए अच्छी यादें लेकर वहां से लौटे।
इस अवसर पर प्रकाशित रंगीन साझा संकलन फागुन आयो रे बहुत ही खूबसूरती से केवल चित्रों के माध्यम से बल्कि विभिन्न रचना की  रचनाओं रूपी सुंदर पुष्पों द्वारा गुमफित किया गया है। संपादिका सुश्री दीप्ति शुक्ला ने यह संग्रह परमपिता परमेश्वर श्री कृष्ण एव  अपने माता पिता श्री केशव देव शुक्ला और श्रीमती शारदा  शुक्ला को समर्पित किया है जो उनकी अपने माता पिता के लिए श्रद्धा सुमन सा है।  प्रत्येक पृष्ठ को बहुत सुंदर सी रंग बिरंगी बॉर्डर से सजाया गया है जो अतीत चित्ताकर्षक बन पड़ा है। केशव कल्चर भक्तिरसामृत शीर्षक पर अप्प दीपो भव में दीप्ति शुक्ला द्वारा स्वयं का दीपक के भौतिक आकार में समेटा गया परिचय भी बहुत प्रभावशाली बना है। आगे देखने में आता है कि संग्रह में प्रकाशित सभी रचनाकारों के चित्रों को केशव कौस्तुभ परिवार के रूप में दर्शाया गया है जो बहुत अच्छी सोच कही जायेगी। क्षितिज नागपाल और Dr. तेजश्री वर्धावे  एवम् तरुण  ने  बहुत ही सुंदर भावपूर्ण चित्रांकन से पुस्तक को सजाया है जो मनोहारी बन पड़ा है। पंडिता ममता महाराज, सरिता गर्ग 'सरि', दुर्गेश्वरी सिँह 'महक', ज्योतिषाचार्य्  हर्शद त्रिवेदी, डा धनंजय त्रिपाठी, सुधीर शर्मा, ज्ञानेश्वरी सिंह 'सखी' और विनीता लवानिया के बहुत  ही भाव भरे संदेशों ने पुस्तक को एक अलग ही कलेवर दिया है। 
सभी रचनाकारों पर चर्चा करने से पहले मैं यहां यह भी कहना चाहता हूं कि कुछ शुभ कामना संदेश पुस्तक के अंत में दिए गए हैं, को शायद उचित नही है। यह संदेश भी संग्रह का मुख्य कथ्य प्रारंभ किया जाने से पहले ही दिए जाते तो शायद इनके साथ न्याय होता।

pic

साझा संकलन में शामिल रचनाओं पर हम अब आते हैं। सबसे पहली ही रचना ज्योतिषाचार्य गायत्री स्वामी द्वारा कान्हा की जन्म कुंडली का विवेचन बहुत ही अच्छा किया गया है और ग्रहों के प्रभाव से कान्हा के व्यक्तित्व को परिभाषित करता है। प्रथम रचना के रूप में उसका चयन सार्थक है। सुरेश खांडवेकर जी ने भी  वसंत ऋतु की बहुत ही अच्छी मीमांसा की है।वसंत और होली का परस्पर संबंध और मदनोत्सव के रूप  को बखूबी दिखाया है। वसंत को ही परिभाषित करने के क्रम में किरण जादौन ने तो आलेख में रसखान को उद्धृत कर मन ही मोह लिया है: ‘गेरत लाल गुलाल अली मनमोहनी मौज मिटा करि के। जात चली रसखानि अली मदमस्त मनों मन को हरि कें।।
इसी आलेख में पद्माकर कालाल गुलाल घलाघल में दृग ठोकर दे, गई रूप अगाधाको बिना पढ़े कोई समझ ही नही सकता।
पद्म विभूषण पंडित बिरजू महाराज काभरि भरि पिचकारी मारे डारत है सप्त रंग, राधे मुख मलत रंग चटक मटक देत ताल, संग बजत ढोल चंग’  पढ़कर ही पता लग जाता है कि लय और ताल का कमाल क्या चमत्कारिक होता है।
भार्गवी रविन्द्र की मां सरस्वती की आराधना में वसंत के जुड़ाव को बहुत  सुंदर भावपूर्ण विधि से अभिव्यक्ति की है जैसेअवनी पर रंगों का उन्मादित समर्पण...
संग्रह के अंत में   बालिका कवि सर्वलीन कौर की बाल सुलभ चेष्टा की मोहिनी सी कविता अनायास ही मन चुरा गई।
डा. ममता गाबा ने बहुत ही सुंदर भावपूर्ण रचना में भक्ति के  रंग के बारे में कहा है किभीतर हिय की चादर पर गर भक्ति का रंग चढ़ जाए, काम क्रोध  मद मोह के बंधन सारे मिट जाएं। इसी क्रम में वंदना सिंह ने नाम की महिमा पर बहुत ही खूब लिखा है किचक्रव्यूह कैसा रचा यह जिसको तोड़ पाती हूं, प्राण तड़पती मीन ज्यूं तड़पे नाम पर बलि  बलि जाती हूं’! पुस्तक के शीर्षक फागुन आयो रे को सार्थक करती हुई उषा जैन उर्वशी में अपनी रचना मेंमचा है आज हुरदंग, श्याम रस बरसा रही होलीलिखकर पाठक को श्याम के रंग में रंग ही दिया है। वहीं वासुदेव कृष्ण के पापियों के संहार हेतु जिस तरहअर्जुन का हाथ थाम बतलाया तूने पहले अंतर्मन से लडना होगाको रंजीता जोशी ने जग से लड़ने से पहले अपने मन से  लड़ने के महत्व को बखूबी उकेरा है। राधा के द्वारा कान्हा को प्रेम पाश में बांधने कोरावशिवराज पाल सिंह ने अपने शब्दों में खुबसूरती से वर्णित किया है। फाल्गुन की खुशियों भरे दिनों की मस्ती को अमीता सिंह ने कितने मनभावन रूप से चित्रित किया हैफागुन की खुशियां मनाने के दिन आए,वसुंधरा ने पहन पीत परिधान सरसों के फूलों ने ली मादक अंगड़ाईफागुन में स्पर्श तुम्हारा पाकर मैं जी लूंगी, अधरों से मैं प्रणय तुम्हारा पी लूंगीलिखकर सरिता गर्ग सरि ने पाठक को अलौकिक अनुभूति के सागर में निमग्न ही कर दिया है।  आस्था जैन अर्चना ने भी अपनी पहली ही पंक्तिफागुन का रंगीला मौसम बांसुरिया खूब बजाता है होले होले रंग गुलाबी तन मन अंबर छा जाता हैसे तन मन गुलाबी रंग दिया है। जहां सब कोई कान्हा के संग होरी खेलने को लालायित है वही सीमा शर्मा मंजरी की गोपी कह रही हैमैं तो होली नहीं खेलूं रे कन्हैया तेरे संग काहे भागे आगे पीछे और लगावे रंग, मैं ना खेलूं संग में तेरे मत कर जोरा जोरी’! समर नाथ मिश्र का योगी मन कहता हैयमुना के तट विकल वियोगी विह्वल विनय करें, छोड़ गए जब से तुम केशव उर मग प्रलय करें’! सरिता गर्ग सरि ने राधा और गोपियों के कृष्ण विरह को कितने अदभुत रूप से वर्णित किया है, देखिए इन पंक्तियों में; ‘वृंदावन रोता है सारा मथुरा आवाज नही जाती, हे सखे द्वारकाधीश सुनो क्या फटे नही तेरी छाती’?  कविता मल्होत्रा की भी पंक्तियां एक सत्य को बखान करती हैंतेरी प्रीत से दिल की कली खिल गई, तेरी चाहत कब उबादत में बदल गई
ब्रज की होरी हुरयारी की सीमा रहस्यमई के इन शब्दों में झलक दिखती हैब्रज में देखो धूम मची है खेल रहे हुरियारे, लट्ठ पे देखो लट्ठ पड़े हैं कैसे भए मतवारे!
ऋतु रस्तोगी कीहोठों पर बातें कई, आंखों में कई रंग, गोदना गुदाय प्रेम का झूठ बोले सखियों संगएक अलग ही अंदाज है। ज्ञानेश्वरी सखी की ब्रज भाषा में कान्हा का गोपी को होली खेलने के लिए बुलाना और गोपी का उसके घर के सारे काम गिनाना बहुत ही अनूठा रस घोलता है, कि काम तो साल भर चलते हैं लेकिन ये होली रोज नही आयेगी। और विनिता लवानिया के कान्हा ने तो ग्वालिन के सब अंग भिगो ही दिए हैंकान्हा के हाथन पिचकारी भर पिचकारी ग्वारिन पे डारी भीज गयो सब अंग’! गोपी भी कम नही है, वह कान्हा को धमकी देती है कि मेरी चुनरिया नई की नई एन कोरी धरी हैयशोदा से जाय कहूंगी जो तू डारे रंग खुमान सिंह का यह कहना कितना अच्छा है किजीवन का आधार मुरारी, सपनो का संसार मुरारी’. साक्षी सिंह ने अपनी कविता में मुहब्बत को बखूबी परिभाषित किया है: ‘मुहब्बत सूर है, तुलसी है, गोपी की कलाई है, मुहब्बत का हर रिश्ता मुहब्बत में ही समाया है ’! संस्कृत से प्रेरित डा. विजय पाटिल की कविता एक आराधना ही बन गई है। समर बहादुर की यह सीख ध्यान में रख कर चलना है किजीवन के उतार चढ़ाव में संदेश यही मिलता है , सुंदर सलोना कृष्ण साथ जब है विचलित तब नहीं होना है’. अनुज कुमार तिवारी की कविता में महुए की मस्ती लेकर पवन मस्त बहती है जो कूचों पर मादकता ले गदराए यौवन को आमों संग बौराती है। सुरेश खंडवेकर की राधा रंग में भीगने के बाद कहती है कैसे मेरी मति मारी गई, अब लाज से मारी जा रही हूं। गुलाल अबीर उड़ता , जीवन के इस रंग में जीना शब्दों के साथ सुरेश कुमार सुलोदिया बहुत सकारात्मक ऊर्जा प्रवाहित करते हैं। भारतेंदु कुमार त्रिपाठी की प्रार्थना बहुत अच्छी बनी है: ‘जानता हूं मेरी प्रीत नही राधा जैसी, हे गोपाल, प्रेम की कुछ वर्ष कर देना’! निशा झा ने अपनी कविता में विभिन्न प्रदेशों की होरी को साकार कर दिया है।राधा के बिना हैं कृष्ण अधूरे, कृष्ण बिन राधा अधूरी, इनके नाम के बिना सारी सृष्टि अधूरी" लिखकर नीरू सचदेवा ने शास्वत सत्य ही उजागर कर दिया है। सीताराम साहू ने अपनी कविता में कितना शुभ लिखा है किकृष्ण जीवन से लेवे शिक्षा अपने जीवन से देवे शिक्षा". सपना यशोवर्धन व्यास ने राजस्थान में होली के अवसर पर होने वाले गैर नृत्य को अपनी रचना में बखूबी उकेरा है। सरस्वती प्रसाद पांडेय ने सरस राग में बहुत सुंदर रचना गूंथी है: ‘वृंदावन में केशव आकर वंशी मधुर बजायो रे’ ! मधुलिका ने मगधी बोली में खूब ही कहा है किबहे लागल बसंती बयार, मन मोरा डोले रे और दीप्ति शुक्ला का उपालंभजाओ बरसो ना अब बरसाने में, तुम सूं प्रीत कर बड़े पछताए.... झूठ की लाग लपेट ना होय, हिए की बात हिए सू होय" औरप्यासी हूं मैं, नित तेरे प्रेम से घट भरूंअनूठा ही है। और अंत में मेरे सिद्धांत जो शेष है वही विशेष है के अनुसार बाल कवि सर्वलीन कौर की रचना " जब कान्हा जी आयेंगे , तो मैं होली खेलूंगी, जब कान्हा जी आयेंगे , तो माखन खिलाऊंगी" के साथ साझा संकलनफागुन आयो रेइन विभिन्न रंगों के पुष्पों के साथ राधा कृष्ण  की भक्ति रस में डूबी बहुत ही अनूठी पहल है, आशा करता हूं  कि केशव कल्चर आगे भीअप्प दीपो भवके अनुसार नए नए साझा संग्रह के प्रयास जारी रखेंगे।
@ समीक्षक: ‘रावशिवराज पाल सिंह,  जयपुर/इनायती , 7728855553 व्हाट्सएप