रिश्ते - शिप्रा सैनी

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घर-घर खुशियाँ अब छूमंतर, अंतर रिश्तों में आने से,

घुटते हैं सब अंदर-अंदर, मंज़र सुंदर वह जाने से।

प्यारा सा दिल है मर जाता , लालच का जब घुसता खंजर,

अब तोड़ दिया है मानव ने, नैतिकता का अंजर-पंजर।

खटपट-खटपट सबसे करते, सरपट- सरपट सब भागे हैं,

नटखट वह भोलापन भूला, टूटे रिश्तों के धागे हैं।

कितना बढ़ना, कितना गिरना, रुकता न क्रम यह लगता है,

मानव ही मानव को छलता, कुछ अटपट सा अब लगता है।

दुख हरने वाले अपनों ने, अपनों से दूरी कर ली है,

सपनों को पूरा करने में, खुद भी तन्हाई झेली है।

टूटा था घर जब टुकड़ों में, दुखड़ा गा-गा माँ रोती थी,

उस छाती को रह-रह पीटा, जिस पर सुत को रख सोती थी।

अब मेहनत से विश्वास हटा, पैसे पर दुनिया पगली है।

जैसे- तैसे कैसे पा लें, पैसे ने फितरत बदली है।

- शिप्रा सैनी मौर्या, जमशेदपुर, झारखण्ड