इजराइल के लिये मजदूरों की भर्ती और गिरमिट युग के खतरे - भूपेन्द्र गुप्ता

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vivratidarpan.com - गरीबी और बेरोजगारी कितनी भयावह होती है और कितने संत्रास में धकेल देती है,गिरमिट प्रथा इसका ऐतिहासिक प्रमाण है। जिसे अंग्रेजों ने 1834 में शुरू किया था।

 एक तरफ हम 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने का दावा कर रहे हैं और दूसरी तरफ हजारों मजदूरों को युद्ध से घिरे संकटग्रस्त इजराइल में  किसी सुरक्षा और मानवीय श्रम कल्याण कानूनों के पालन के बिना निर्माण श्रमिकों को भेजने के लिए भर्ती अभियान चला रहे हैं। यह देश में फैली भीषण बेरोजगारी पर  देश की वस्तुस्थिति है।

अभी उत्तर प्रदेश और हरियाणा सरकार ने निर्माण मजदूरों के इजराइल में भर्ती किए जाने के विज्ञापन निकाले हैं जिनमें अत्यंत आकर्षक वेतन लगभग एक लाख  तीस हजार रुपए प्रतिमाह का जिक्र किया गया है ।राष्ट्रीय कौशल विकास निगम द्वारा जारी प्रपत्रों में इसे 'विदेश में सपनों का पासपोर्ट' बताया गया है। हरियाणा के रोहतक में हजारों की संख्या में हरियाणा, उत्तर प्रदेश, पंजाब आदि राज्यों से मजदूर पहुंच रहे हैं ,जहां इजरायली नियोक्ता उन्हें इंटरव्यू करने आ रहे हैं।। हालांकि वे नहीं जानते कि इस तरह की भर्ती में वे केंद्र सरकार के 'ई-माईग्रेंट'की सुरक्षा से वंचित भी किये गये हैं।ई -माईग्रेट पर पंजीकृत श्रमिकों को सरकार कानूनी सुरक्षा प्रदान करती है।संकटग्रस्त क्षेत्रों में काम करने वाले मजदूरों की इस आकर्षक तनख्वाह में से इजरायली नियोक्ता रहने खाने और बीमा के पैसे काट लेगा ।यह इजरायली मुद्रा में कितना होगा कोई नहीं जानता। मजदूर को आने जाने टिकिट के खर्च भी स्वयं ही वहन करने पड़ेंगे और साथ ही उसे राष्ट्रीय कौशल विकास निगम को भर्ती सेवा शुल्क के रूप में 10 हजार का भुगतान भी करना पड़ेगा।

देश में बेरोजगारी के भयानक संकट के बीच यह इस तरह की भर्ती है ,जिसमें सरकार कोई जिम्मेदारी उठाने के लिये तो तैयार नहीं है,फिर भी फेसिलिटेशन फीस वसूल रही है। इसे सपनों को सजीव करने का अवसर बता रही है।

बिना किसी कानूनी सहायता के इस तरह मजदूरों को संकट ग्रस्त क्षेत्रों में भेजना  गिरमिटिया युग के दोहराव जैसा दिखाई दे रहा।तब  1834 में अंग्रेजों द्वारा भारतीय मजदूरों को अफ्रीकी देशों जैसे फिजी,ब्रिटिश गुयाना,डच गुयाना,सूरीनाम,ट्रिनिडाड,टोबेगा,नेटाल में गन्ने की खेती और शक्कर मिलों में काम करने के लिये ले जाया जाता था।मजदूरों को ले जाने के इस कागजी एग्रीमेंट को गिरमिट और मजदूर को गिरमिटिया कहा जाने लगा और वहां उन्हें गुलाम बना लिया गया था।

इतिहास में दर्ज है कि गिरिमिटियायों की भर्ती में सामान्यतः 40 फीसदी महिलायें भी जातीं थीं ।काफी महिलायें  मालिकों के  शोषण का शिकार भी होतीं थी।गिरमिटिया स्त्री या पुरुष शादी नहीं कर सकता था और  अगर कर ले तो उनकी संताने भी मालिक की संपत्ति  मानी  जातीं थीं।वे एक नारकीय जीवन  जीने पर मजबूर थे।12 से 18 घंटे काम करने वाले ये श्रमिक गिरमिट समाप्त हो जाने पर वापिस भी नहीं लौट पाते थे क्योंकि उनके पास वापिस आने के पैसे भी नहीं होते थे।इस अवस्था में या तो वे किसी दूसरे मालिक के गुलाम हो जाते थे या मालिकों द्वारा बेच दिये जाते थे।अनेक गिरमिटिये समुद्री यात्रा में ही मर जाते थे।लेकिन कोई कानून इस दमन से उन्हें सुरक्षा नहीं देता था।उनकी अकाल मौतें उनके परिवारों को निरंतर गुलामी के लिये विवश कर देती थी।

विदेशी धरती पर इस शोषण और दमन  के विरुद्ध गांधी जी ने संघर्ष किया और गोपालकृष्ण गोखले से मिलकर 1912 में इंपीरियल लेजिस्लेटिव  कौंसिल में इस पर प्रतिबंध लगाने की मांग की।तोताराम सनाड्य जैसे गिरमिटियों की पीड़ा और संघर्ष से विचलित  गांधी जी ने भारत आकर दिसंबर 1916 में भारत सुरक्षा और गिरमिटिया अधिनियम कांग्रेस के अधिवेशन में रखा।जगह जगह प्रदर्शन हुए।व्यापक विरोध को देखते हुएअंग्रेजों को झुकना पड़ा और  12 मार्च 1917 में ब्रिटिश सरकार ने गिरमिट पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया। यह भारतीय बेरोजगार श्रमिकों के न्याय की पहली लड़ाई थी।

इजरायल भेजे जाने वाले इन मजदूरों की भर्ती  को भी इस ऐतिहासिक पीड़ा के संदर्भ में समझा जाना चाहिए। कानूनी सुरक्षा और मानवीय सुविधाओं के अभाव में भारतीयों को वहां भेजा जाना उन्हें खतरे में डालने वाला है।बीमारी की अवस्था में चिकित्सा खर्च भी अगर उनके खाते आता है तो  मजदूर अंततः गुलाम ही बनेगा।

सरकार को चाहिये कि इन मजदूरों को सुरक्षा और वेतन की गारंटी इजरायल सरकार से प्राप्त करे अन्यथा यह एक तरह की कबूतर बाजी ही होगी जो सरकार की जानकारी में तो होगी लेकिन 'ई-माईग्रेट' के सुरक्षा कवच के बिना होगी।

हमें सतर्क रहना चाहिये कि हमारी बेरोजगारी की विवशता का अन्य देश बेजा लाभ न उठा सके और यह भर्ती कहीं ' गिरमिटिया पार्ट-2' न बन जाये।(विनायक फीचर्स)