प्रकृति - सुनील गुप्ता

(1) " प्र ", प्रमुदित बनाए चले प्रकृति
और सिखलाए मुस्कुराते चलना !
बदलती चले है सतत नियति......,
ज़िन्दगी में आगे बढ़ते ही रहना !!
(2) " कृ ", कृति है यहां की हरेक अनुपम
और रची है ईश्वर ने प्रकृति सुन्दर !
करते चलें प्रेम इससे यहां पर......,
और हर्षाएं सबके संग यहां रहकर !!
(3) " ति ", तिर्दिवा सी सुन्दर है ये धरती
करते चलें इसका हम श्रृंगार !
खोजें आनंद प्रतिपल यहां पर.....,
और चलें महकाए ये धरा संसार !!
(4) " प्रकृति ", प्रकृति देती है हमको भर-भरकर
आओ चलें लौटाए पुनः इसको वापिस !
और बनाएं इसे अपना मित्र हितैषी.......,
और करते चलें पूरी हरेक ख्वाहिश !!
(5) " प्रकृति ", प्रकृति है ईश्वर की सुंदर रचना
आओ इसका करें हम सदा सदुपयोग !
चलें बाँटते जीवन में प्रेम खुशियाँ......,
और करें मितव्ययता से इसका यहां उपभोग !!
(6) " प्रकृति ", प्रकृति है ईश्वर का ही स्वरूप
करते चलें सदा इसका यहां पूजन !
जल थल अग्नि वायु आकाश से ही.....,
मिल हुआ है इस शरीर का निर्माण सृजन !!
(7) " प्रकृति ", प्रकृति से प्रेम यानि ईश्वर से प्रेम
है ईश्वर की दी हुयी ये संपत्ति प्रकृति !
करते चलें सदा इसका यहां सम्मान.....,
ये सदा हर्षाए चले हमारी नियति !!
तिर्दिवा= स्वर्ग सा
-सुनील गुप्ता (सुनीलानंद), जयपुर, राजस्थान