प्रकृति और ब्रह्म - डॉ. परमलाल गुप्त
Vivratidarpan.com - दार्शनिक ग्रन्थों में प्रकृति को माया का पर्याय माना गया है, जिसका सृजन ब्रह्म ने किया है। उनके मतानुसार ब्रह्म ही मूल तत्व है। ब्रह्म क्या है? यह सत् का पर्याय है। उसी से अग्नि, अग्नि से जल और जल से अन्न अर्थात सम्पूर्ण प्रकृति उत्पन्न हुई। यह ब्रह्म की 'एकोहम् बहुस्वामि’ एक से अनेक होने की इच्छा का परिणाम है। वही प्रकृति से उत्पन्न जीवों में चेतना या आत्मा के रूप में विद्यमान है। प्रकृति को त्रिगुणमयी माना गया है। प्रकृति से उत्पन्न होने के कारण मनुष्य में सत्व, रज और तम गुण आते हैं। यदि मनुष्य अपनी साधना और संयम से इन गुणों से परे अथवा त्रिगुणातीत हो जाये, तो वह आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाता है। उसे फिर जन्म नहीं लेना पड़ता। वह अपने वास्तविक तत्व ब्रह्म में लीन हो जाता है। यह प्रकृति ब्रह्म का एक खेत है। अत: यह असत्य है। कुछ दार्शनिक जगत को सत्य मानते है और संसार को झूठ। संसार वह है जो मनुष्य अपने मन में निर्मित करता है। पाश्चात्य दार्शनिक क्रोचे का भी यह मानना है कि मनुष्य अपने मन में जो प्रकृति जगत या वस्तु का रूप बना लेता है, उससे ही उसे वैसा प्रतीत होता है। जगत अपने आप में कुछ नहीं है। जो बिम्ब प्राणियों के मन में बसते हैं, वही संसार या जगत हैं। इन सभी धारणाओं के बावजूद जगत या प्रकृति की सत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता। प्रकृति (सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड) स्वयं अपने आप इतनी विशाल और शक्तिशाली है कि मनुष्य उसे पूर्ण रूप में नहीं जान पाता। वैज्ञानिक उसके नये-नये रहस्य खोलते जाते हैं, नये-नये आविष्कार करते हैं, परन्तु वे कुछ नया निर्माण नहीं करते। वे प्रकृति के नियमों से बाहर कुछ नहीं कर सकते। इस रूप में मनुष्य की बुद्धि सीमित है और प्रकृति का स्वरूप अनंत हैं। प्रकृति अपने ढंग से चलती है। जड़-चेतन सबको पैदा करती और मिटाती रहती है। सभी जीव नश्वर हैं। मृत्यु एक अटल सत्य है। इसे कोई नहीं रोक सकता।
प्रकृति (ब्रह्माण्ड) के निर्माण में कोई ठोस तत्व नहीं है। सारे ग्रह ज्वलनशील गैसों के अग्निपिंड हैं। इन्हीं से पदार्थ गैस, द्रव या ठोस रूप में परिवर्तित होता रहता है। अग्नि सर्वव्यापक है। पृथ्वी की सतह पर भी और अन्दर भी। ग्रहों का कोई आधार नहीं है। वे अपने पारस्परिक गुरुत्वाकर्षण से विद्यमान रहते हैं। ये भी बनते-मिटते रह सकते हैं। पृथ्वी स्वयं पहले सूर्य का एक अंग थी। सूर्य से अलग होकर कितने अरब वर्षों में पृथ्वी पर प्रकृति या जीवन का सृजन हुआ और यह कब तक चलेगा। पृथ्वी में कितने परिवर्तन हुए और होंगे, यह कोई नहीं जानता। शाश्वत कुछ भी नहीं है। नित्य नया घट रहा है। पृथ्वी भी कभी विलीन हो सकती है। प्रकृति की अनंतता और अनादिता यही संकेत करती है कि वह ब्रह्म से अलग नहीं है। प्रारंभ में पहले क्या था? कोई दावे से कुछ नहीं कह सकता। शून्यवादी मानते हैं कि प्रारंभ में शून्य अर्थात कुछ नहीं था। यदि कुछ नहीं था तो उससे कुछ कैसे उत्पन्न हो सकता है? शून्य से बिन्दु या परमाणु भी कैसे बन सकता है? इसलिए यह धारणा मिथ्या है कि पहले शून्य था। कुछ ऐसा सूक्ष्म, अदृश्य या निर्गुण अवश्य था, जिससे ज्वलनशील गैसें बनीं। सूर्य जो पृथ्वी से अठारह सौ गुना बड़ा है, वह ज्वलनशील गैसें का पिण्ड मात्र है। उसमें इतना अधिक ताप है कि पृथ्वी पर उसका थोड़ा ताप बढ़ जाने पर सब भस्म हो जायेगा। ग्लोबल वार्मिग का खतरा अब पृथ्वी पर मंडराने लगा है। मौसम आदि की गतिविधियां अनियंत्रित हो गयी हैं। बर्फ पिघल रही है। समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। अनेक द्वीप समुद्र में डूब गये हैं। संभव है भविष्य में सम्पूर्ण भू-भाग समुद्र में डूब जाए और अधिक ताप बढऩे पर पृथ्वी के अन्दर की कड़ी पर्त भी टूट सकती है और पृथ्वी पुन: एक ज्वलनशील पिण्ड में बदल सकती है। इसमें फिर अरबों वर्ष बाद जीवन आ सकता है। यह सब प्रकृति में अपने आप घटित हो रहा है। यही सत् या ब्रह्म हैं जो ब्रह्माण्ड में क्रियाशील है अथवा प्रकृति की क्रियाशीलता ही ब्रह्म है।
प्रकृति ब्रह्मï का ही विस्तार है। यहां हर वस्तु नश्वर है। उससे पार नहीं पाया जा सकता। इसलिए भारतीय मनीषियों ने प्रकृति से सामंजस्य करके जीवन की राह तलाश ली। उन्होंने अपने सुख के लिए प्रकृति का दोहन करके भौतिक विकास का विनाशक रूप नहीं अपनाया। वे तत्वदर्शी थे। इसलिए प्रकृति से संघर्ष मोल न लेकर उन्होंने प्रकृति की अभ्यर्थना की। सबमें पूज्य भाव रखा। अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, सूर्य आदि तमाम प्राकृतिक शक्तियों के साथ नदी, पर्वत, वृक्ष, पशु-पक्षी, सरीसृप, जलचर आदि सबमें अपना ही रूप देखा और इनकी पूजा की। यह प्रकृति और ब्रह्मï की असीम सत्ता को स्वीकार कर अपने अहं से विसर्जन साक्षी भाव था। अनासक्त होकर जीने की स्वीकृति थी। प्रकृति दत्त गुणों में उन्होंने तपोगुण और रजोगुण का त्याग करके सतोगुण का विकास किया, ताकि वे प्रकृति की उस लीला से छुटकारा पा सकें, जो उन्हें दुख देती है। उन्होंने प्रकृति से अपने को स्वतंत्र करने की चेष्टा की।
जो प्रकृति पर विजय की बात करते हैं, वे वास्तव में उत्तरोत्तर उसके गुलाम बनते जाते हैं और अंतत: वे उसके क्रोध के शिकार भी बनते हैं। त्रिगुणातीत होने का प्रयत्न करना प्रकृति या माया से छुटकारा पाना है। यद्यपि प्रकृति की शक्ति इतनी बड़ी है कि उसके बिना जीवन संभव नहीं। देह-धर्म के निर्वाह के लिए मनुष्य को प्रकृति का आश्रय लेना अनिवार्य है, तथापि वह प्रयत्न करके अधिकाधिक निर्गुणता की ओर बढ़ सकता है। सभी जीवों का जीवन पूरी तरह प्रकृति पर निर्भर है। प्रकृति ही जीवों को उत्पन्न करती है, उनका पोषण करती है और वही उन्हें मृत्यु के आगोश में समेट लेती है। अधिक गर्म, अधिक ठंड, तूफान, बाढ़, भूकम्प आदि अनेक आपदाओं से मनुष्य तथा अन्य जीव मर जाते हैं। बीमारी, दुर्घटना. हत्या, मृत्युदंड आदि से भी अनेक लोग मरते हैं। कुछ की मृत्यु को अकाल मृत्यु कहा जाता है। कोई अपंग पैदा होता है, कोई ऊंचा या ठिगना, कोई काला या गोरा। इस सृष्टि में करोड़ों विचित्र जीव हैं। क्या यह सब असत्य और भ्रम है अथवा यह एक स्वप्न जैसा है। देह के साथ ही आत्मा का अस्तित्व होता है और देह के न रहने पर न जीवन रहता है और न आत्मा का कोई स्वत्व प्रतीत होता है। मनुष्य जीवित रहते ही अपनी देह से परे आत्मा में स्थित हो सकता है। आत्मज्ञान होने पर आन्तरिक रूप में प्रकृति का साथ छूट जाता है। यही उसकी मुक्ति और दु:खों से छुटकारा है, परन्तु जीवन के लिए उसे अनासक्त भाव से ही सही, प्रकृति का साथ लेना पड़ता है। इसलिए अध्यात्म में जो आत्मा या परमात्मा को ही सत्य मानकर और उसे ही प्रकृति या सृष्टि का नियामक मानकर प्रकृति की माया के रूप में उपेक्षा की जाती है, वह पूर्णतया व्यावहारिक नहीं है। प्रकृति कम शक्तिशाली नहीं है। वह जीवन की अनिवार्यता है। अत: उसे ब्रह्मï से अभिन्न कहें तो कोई गलत बात नहीं है। प्रकृति (ब्रह्माण्ड) की विराटता एक प्रकार से ब्रह्मï ही है। यदि जीवन न रहे तो ब्रह्म को कौन जानेगा? इसलिए महादेवी वर्मा ने लिखा है-
क्या अमरों का लोक मिलेगा,
तेरी करुणा का उपहार।
रहने दो हे देव अरे यह
मेरा मिटने का अधिकार॥
मनुष्य को इस सत्य को समझकर जीना चाहिए। यही आत्मज्ञान है, जिसमें जीवन निहित है। (विनायक फीचर्स)