कवितायें - सवर्णजीत सवी

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Vivratidarpan.com - भरतीय साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता (2023) स्वर्णजीत सवी  पंजाबी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनकी बहु चर्चित कविताओं की विशेषता यह है उनकी कविताओं में अहसास की धूप, उदासी की धुंध, जुदाई की तपिश और मिलन की बर्फ़ जैसी ठंडक भी है। वो अपनी कविता के माध्यम से ज़िन्दगी के दिल पे लगे हुए ज़ख़्मों को उजागर करते हैं।

उनकी कविताएँ मानस पटल पर सीधा असर करती हैं, कल्पनाओं के द्वार खोलती हैं।हिन्दी के पाठकों के समक्ष उनकी यह अनुवादित कविताएँ रखती हूँ।

 मूल पंजाबी कविताएँ  सवर्णजीत सवी  अनुवाद : डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक ( लुधियाना )

(1) दहलीज़ -

तेरे सरोवर में+ 

उतरने से पहले

दहलीज़ पर रुकता हूँ

        

तन-मन धोता हूँ

कि मेरी प्रार्थना का

प्रत्येक शब्द

मेरे शुभ विचारों की ध्वनि

फैल जाये

तेरी राहों में

तेरी साँसों में

बन कर ख़ुशबू…।

(2) वो पल -

कितना मासूम होता

वो पल

जब वह अपने नर्म हाथों से

मेरी गर्दन को कस कर पकड़ती

एक लम्बे चुम्बन के बाद

काँधों से मेरी क़मीज़ पकड़

कोमल होंठों को पोछती

जैसे पंछी

साफ़ करते हैं चोंच

पेट भर दाना चुनने के बाद।

(3.) शाहकार -

भर दूँ

तेरे मन के पानियों में

सम्पूर्ण संसार का मधुरम संगीत

तेरे जिस्म पर

कायनात में फैले

अनन्त रंगों को भर कर

लगा दूँ ब्रश की छुअन

छिड़क दूँ

तेरी देह पर

गुलाबों की ख़ुशबू

तू बन जाये

संसार का प्रेम से भरा शाहकार

कि तेरी झलक के साथ ही

दुःख- दर्द चिन्ताएँ ख़त्म हो जाएँ

ख़त्म हो जाए

नफ़रत और  दरिन्दगी का नृत्य।

(4) देही नाद -

तुझ से मिलते ही

मुक्त होता हूँ

मैं सभी

योनियों से

तेरे भीतर सिमट जाता है

मेरा सम्पूर्ण संसार

और मैं पाता हूँ

अपनी इच्छा का स्वरूप

कि  तू

मेरी शक्ति

मुक्ति दाती

मेरी सन्तुष्टि का समन्दर है।

(5) फिर तेरे पास -

मैं जब भी मिलता हूँ

तुम से

आख़िरी बार ही मिलता हूँ

परम् आनन्द शिख़र पर

मृत्यु  की भाँति

पलट आता  हूँ

स्तब्ध

किसी बच्चे की भाँति

फिर तेरे पास आने के लिए

आख़िरी बार

मृत्यु की भाँति…।                                                             

(6) तू समझ बैठी -

मैंने मुहब्बत की

तू समझ बैठी

अपनी अहम् के पल्लू से

बन्धा ग़ुलाम

जो सदैव कहता

" हुक्म मेरी आक़ा "

मैंने उड़ान भरी

तेरे सरोवरों के

पवित्र पानियों में नहा कर

तू देखने लगी

मेरे पंखों को काटकर

नाडियों से बहते रक्त में

मुहब्बत की कांति

मैंने होंठ छुए

अविच्छिन्न

बहती धुन की तरह

तू साँसों को पीने का

रास्ता खोजने लगी।

(7) तू नहीं जानती -

तुझे लगता है

मैं तुझे नहीं

जिस्म को करता हूँ प्यार

तू नहीं जानती

दरगाह-ए-मुहब्बत की

सीढ़ियाँ चढ़ते

साँस - साँस

तेरा नाम जपता हूँ

तुझे

वो जिस्म लगता है

मेरे लिये तो

रोम-रोम

तेरे तक पहुँचने के लिये

ध्यान में जाने से पहले

आकाश में चमकते

सप्त ॠषि ( सात महान ऋषि) हैं।

- मूल पंजाबी कवितायें - सवर्णजीत सवी

(भरतीय साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता 2023)

 अनुवाद : डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक। लुधियाना , पंजाब